Sunday, 3 December 2023

निबंध प्रतियोगिता

 तुम्हारा नाम क्या है? 

अमरमणि 

और तुम? 

हम गीता 

पूरा नाम बताओ 

हाँ, गीता राधा 

राधा हमारी अम्मा बुलाये और गीता पिता जी 

हम अमरमणि यादव 

अच्छा जी 

हम सोचे त्रिपाठी  

(अट्टहास)

वैसे तो फिर गीता राधा कुर्मी 

अच्छा अच्छा 

कौन गाँव से हो ? 

कुर्मियाने का पुरवा 

वही ना, चमरउटी के पीछे 

और तुम अमरमणि त्रिपाठी? 

हम ठकुराने के बग़ल वाले में 

हो तो अहीर ना यार तुम! 

हाँ हाँ जी

सिंह भी लगाते हो क्या? 

नहीं नहीं हमारे चाचा लगाते हैं 

इलेक्शन लड़ोगे का? 

नहीं नहीं, वो मुलायम के टाइम से लगा रहे हैं 

और तुम सब 

हम सिर्फ़ यादव 

तो अमरमणि सिर्फ़ यादव जी…

(अंदर बेल की तेज आवाज़ आयी) 

गुरु जी तेज़ आवाज़ में 

अरे बच्चों को हस्ताक्षर करा के जल्दी भेजिए अंदर

लेट हो रहा है 

सामने ब्लैकबोर्ड पर लिखा है 

संविधान दिवस के उपलक्ष्य पर सामाजिक समानता पर निबंध प्रतियोगिता”

गीता कुमारी -  प्रेजेंट सर 

अमरमणि यादव - प्रेजेंट सर

सिद्धार्थ पासी - प्रेजेंट सर

शिवनारायण त्रिवेदी - प्रेजेंट सर

…….


वियोग योग का साथी

 एक रात 

फिर कई रात 

नई दिल्ली में 

रायसीना के चौड़े गलियारे से पहले 

वो आगे आगे चलता 

वो उसके पीछे 

कदमों के बेनिशान निशान पर 

कदम दर कदम 

चलती जाती

फिर कई रातें 

वो पीछे चलते चलते 

दोस्त यारों की तरह 

हंसते लड़ते झगड़ते इठलाते 

साथ चलने लगे 

उसे फक्र था 

एक ही छल्ले में 

दोनों की चाभी का होना 

मोमबत्ती के उजाले में 

परछाई संग रात बिता देना 

कभी ग़ुस्से और नख़रों में भूखे सो जाना 

यक़ायक हर रोज़ तकरार ने 

ऐसी जगह बनाई 

की वो परछाई बन गई 

मोमबत्ती के उजाले हट गये 

अंधेरे में भी वो दूर दूर सो गये 

क्या वो दूर दूर हो गये ?

शहर बदले मकान बदले 

चाभी के छल्ले और चाभियाँ अलग हो गई 

मक़ाम एक हैं 

रास्ते भी एक हैं 

पर साथ चलने में 

इतनी गुस्ताखी क्यों है 

तल्ख़ी और जज़्बात क्यों है? 

झूठ सच का इतना पैमाना क्यों है? 

ये इतने सवाल क्यों हैं? 

फिर एक दिन सवाल भी बंद हो गये 

थकने की आवाज़ काँच के टूटने जैसे होती होगी 

चुभती रहती है हर ठीक से मिटे ना तो

वो चाहिए तो पूरा वरना नहीं 

इसका भरम था उसे

आज उसके संग घर बसा रही है

पर वो ना मिला 

ये कैसा साथ है 

वो है तो पूरा घर बार भी है 

पर वो जिससे इश्क़ में खो गई थी वो

दोस्त पा मचल गई थी जो 

अब अच्छे दोस्त का टैग लगा 

अकेले ही शाम गुजरा करती है 

रात स्याह हो या पूर्णिमा 

काली ही जाया करती हैं

सब कहते हैं 

दुख बड़ा है आपकी कविता में 

भरम टूटे तो क़िस्से जन्म लेते हैं 

मुस्कुराहट तो गलियारों के कोने में 

सुगबुगाती ही मिलती हैं 

फिर या तो हंसी खेलती हैं 

घुँघरू पहन 

या फिर नृत्य वियोग रस में तांडव करता है 

भ्रम टूटे तो 

भरम की नहीं वास्तविकता की ही परीक्षा होती है। 

रात अमावस हो या पूर्णिमा 

चाँद की ही नपाई होती है। 







Sunday, 5 November 2023

तुम्हारी बातें बिना तुम्हारे

 वो मेरे बिना रह सकता है 

अब ये सवाल नहीं रहा 

वो रह के दिखा रहा है 

जहां मैं ना होऊँ

वहाँ अपनी दुनिया बसा रहा है

एक सुई सी चुभे 

जिसमें टन का भार भी हो

ऐसा दर्द होता है 

साँसें लेने में 

दिल डूब जाता है 

मैं फिर उसी कमरे के कोने में 

बैठ जाती हूँ

उस रात तो उसने अपने पास बुला लिया था 

पर अब नहीं बुलाता 

प्यार ऐसे ही अचानक नहीं 

धीमे धीमे ख़त्म हो जाता है 

मैंने ख़ुद को सहेज लिया है

चोट लगने से डरती जो हूँ 

दिन में हंसती हूँ खुल के

रातों में ख़ुद के साथ की 

बेईमानी का बोझ आंसू से धो देती हूँ 

और ग़द्दार आँखें 

अगले दिन 

मुँह सूजा सबको बताती फिरती हैं 

कि कल रात ये भीगी थी 

बवंडर में बारिश में जकड़ी थी 

इंतज़ार यूँ ही नहीं 

धीरे धीरे आदत बन जाता है । 

उसका प्यार ख़त्म हुआ 

मेरा इंतज़ार बढ़ गया। 



Monday, 25 September 2023

शब्दों का जाल

 ख़ुद के शब्द 

बेवजह बस बात करने की 

रवायत का हिस्सा जैसे 

ना मतलब कोई उनका 

कहीं से आयीं थी मुझमें 

और किसी के सामने 

निकलने को बेताब 

वही घूम घूम के 

बस वही वहीं 

अच्छा! 

लहरें भी तो घूम घूम के वहीं आती है 

तो क्या बेमतलब हो गयीं वो 

शब्दों का पूरा समंदर है 

और उनका निकलना 

लहरों की संगत सा है 

रूठ के शब्द चले गये 

गले से कहीं दूर 

नीचे उतर गये 

उस दिन बिना मौन 

किसी से बात ना हुई 

क्यों क्या हुआ? 

सवाल का जवाब देने भी ना आये

अहम भी है इनमें 

अच्छा भई! 

कितना बोलूँ 

कि इन शब्दों के निकलने से 

मुझे मैं बेईमान झूठी ना लगूँ 

मछलियाँ है क्या अंदर 

जिनको ऑक्सीजन चाहिए? 

केकड़े और फंगस भी? 

शब्द समंदर की लहर है भी क्या? 

या उसी का एक नया जाल? 

जिसमें मैं फिर से फस गई? 

मछली है कौन? 

कहीं मैं तो…. ? 

मैं तो समंदर…..





Saturday, 29 July 2023

वो तुम्हारे हैं

 उसने दूरी बनायी 

और दिल सबसे दूर हो गया 

वो लोग हैं 

जो मेरे बिना अकेले से थे 

उनसे दूर 

किसी के चले जाने का ग़म सींच रही थी 

किसी के अलगाव को 

ख़ुद नापसंद बन सबसे अलग हो रही थी 

वो कहने लगे 

कि काम होगा उसे आजकल

फ़ोन नहीं आता उसका 

वो बिस्तर में सिर घुसाये 

ना छत देखती ना दीवार 

मुँह पर परछाई बने फूलों को ताका करती 

क्या दिन क्या रात 

सब यूँही बिस्तर में गड्ढा बनाते 

हड्डी और मांस में लिपटे 

बंद डब्बा दिमाग़! 

सब कहने लगे कि

काम बहुत है उसको 

इसलिए अब फ़ोन भी नहीं उठाती सबका 

घंटियाँ बजती 

वो खुली आंखों से देख 

तकिया में घुसा आँख को अंधेरे में सुला देती 

पर ये कोशिश ही रह जाती 

सब कहने लगे कि

चेहरा काला पड़ने लगा है 

आँखों के नीचे गड्ढा होने लगा है 

काम बहुत ज़्यादा है उसे 

एक दिन उजाले में उसने बात की थी उनसे 

वो फिर धड़कनों के रुकने 

मौत के आ जाने 

और ख़ुद की लाश बन जाने के इंतज़ार में 

बिस्तर पर थके शरीर को साँस लेना सीखा रही थी। 

घंटी बजी और फिर कहा उन्होंने 

काम कर रही होगी अभी। 


बात

 जब दो लोग एक दूसरे से कहने लगे 

 बात करने को कुछ ना बचा 

क्या बात करें! 

क्यों बात बात बात करनी है 

तो सच में कहने को कुछ ना बचा उनके बीच

पर किसने कह दिया उन्हें 

बातें सिर्फ़ ज़ुबान करती है

शब्दों से ही होती है बातें 

भाई, सिले होंठ दास्तान बयान कर जाते हैं 

आँखें करती हैं बातें

भौंहों का सिकुड़ना, हाथों का छूना

साथ होने का सुकून 

बहुत सी बात करता है 

फिर सवाल आया ग़ुस्से में 

पर भई क्या बात करनी है? 

साँसों में पिरो लेना है 

इतना कि

मेरी धड़कन अपना पता दे जाए 

इस हद तक रहना है तुममें 

और तुमको ख़ुद में 

बात तो मुझे भी नहीं पता 

क्या करनी होती है! 

ना घर की ना दुकान की 

ना ज़मीन की ना ईमान की 

ना पड़ोस की ना असमान की 

ना नज़रों की ना नज़ारों की 

या दुनिया की ना दावेदारों की 

इस बार झल्लाहट आयी एकदम तेज़ हवा सी 

कि भई समझा तो दो 

कि क्या बात करनी है? 

क्या बात करना चाहती हो? 

जो हर वक़्त यही रट लगाये रहते हो? 

अंदर कुछ ज़ोर ज़ोर से कह रहा था 

जवाब में शायद 

बाहर सन्नाटा था 

कि जैसे कोई बात ही ना हो! 





Friday, 12 May 2023

वीआईपी

 वीआईपी होना एक हुनर है 

और जो नहीं है वीआईपी उनके लिए एक एहसास 

जहां भीड़ से दूर  

चंद लोग बेहतरीन व्यवस्था का आनंद लेते हैं

लोग पसीने में 

वो एसी और ठंडी हवा में 

पानी ठंडा और ख़ाना गरम

ख़ाना देने वाले सलीक़े सीखे हुए 

बैठने के लिए चंद कुर्सी 

और उससे कम बैठने वाले लोग 

खाने के लिए अलग जगह  

साफ़ सुथरी 

यहाँ तक कि

पेशाब वाली जगह भी साफ़ और महकाऊ भी 

यह एहसास अपनी ज़िंदगी में कुछ हासिल ना कर पाने 

या कम हासिल कर पाने 

या पीछे रह जाने की कसक को झुठला देता है 

किसी एक जगह 

जिसे पॉवर सर्किल कहते हैं कुछ लोग 

सर्किल ही है 

तुम उनको वो तुमको एक दूसरे को 

गोल गोल घूम के लेने देने का कार्यक्रम करते रहते हैं।

इस पॉवर सर्किल में रहने का दंभ 

और ख़ुद को एक अदद जानता से ऊपर समझने की झूठी दखल

फिर अगले पल उसी भीड़ में ख़ुद को पा 

सचाई का रस्सा पकड़ 

ख़ुद की असलियत को मानने की 

महानता से ख़ुद को फिर से खुश के लेते हैं 

और कुछ पल के वीआईपी के एहसास से 

आस पास और दूसरी जानता से ऊपर होने का एहसास 

उन्हें कुछ पल के लिए 

मरी हुई लाश में हलचल दे देता है 

आज इसी हलचल में हिचकोले खा के  रही हूँ। 


Friday, 7 April 2023

बिना तुम्हारे; तुम्हारी बातें

तुम इश्क़ कहो 

जात मेरी हो

तुम नाम जो लो 

शक्ल मेरी हो 

मुझे इश्क़ है 

जो मोहब्बत से आगे 

इबादत से पहले सरगर्म-ए- सफ़र कहीं

सबने कहा ऑब्सेशन है 

ज़िद है 

इसे प्यार नहीं कहते 

जिसकी सारी ज़िद ना मान पाऊँ 

शिकायतें रहे 

वहाँ प्यार नहीं रह सकता 

मान भी गई मैं । 

इश्क़ की जात क्या 

ये जान ना सकी 

तो मान ही गई मैं 

इश्क़ मोहब्बत प्यार में क्या फ़र्क़ है 

इसका कोई पैमाना पता नहीं 

बस मुझे एक एहसास ने ज़िंदा रखा है 

कई दिनों से 

ये पता है मुझे

और ये पढ़ाई नहीं कॉलेजों की

जो मैं फेल हो जाऊँ 

वो जिससे हुई है मोहब्बत 

उसने कई दफ़े नकारा है मुझे 

फिर भी एहसास ज़िंदा रहता है वैसे ही।

हाँ, शिकायतें हैं

रोना शिकवा ज़िद ग़ुस्सा 

और तमाम वो नख़रे हैं 

जो आते है मुझे करने 

और नहीं भी आते हैं।

पर उससे इश्क़ है मुझे। 

मैं उससे रूमी की लिखी इश्क़ की आयतों सरीखी

ग़ालिब का इज़हार 

कलंदर का कलाम

या पाश का जुनून

इमरोज़ के बूरूस का घुमाव 

या कुंवर नारायण का नयापन 

एक तवायफ़ की नज़ाकत 

एक हमउम्र सा राज़दार 

सबसे महफ़ूज़ जगह 

सबसे मुश्किल में मेरा हाथ 

अंधेरों में मेरा साथ 

तबाह भी मैं

बेपनाह भी मैं 

स्याह में उजाले का सबब भी मैं

इश्क़ का नाम लो और शक्ल भी मैं 

बड़ी ऊँची उड़ान और ख़्वाब है ये 

पर ये भी मैं। 

उसके साथ उसके इश्क़ में बस मैं 

मेरे सिवा कोई दोस्त ना हो

इतनी हिम्मत बख्शे ख़ुदा 

कि सब हो 

और मेरे सिवा कोई और ना हो।

हाँ माँगती हूँ, चाहती हूँ 

है भी मेरे पास

इस मोहब्बत में रुसवाई भी खूब है 

वो मेरे हिस्से आ गई कब से 

अब इश्क़ भी महके 

और मुस्कुरा उठे वो

मैंने सिनेमा देख के सीखा हो 

किताबें पढ़ के भरम पाला हो

ऐसी दीद नहीं 

ऐसा नायक नहीं 

ऐसा इतिहास नहीं।

जब मैं देखूँ  इश्क़ को 

खुली आँखों या बंद पलकों में 

रुतबा वैसा ही रखूँ 

जो कायनात में ना हो। 

सबसे ऊँचा मक़ाम इश्क़ का हो 

उससे और अपनों से भी 

फिर इंसानों की इस दुनिया में 

जब इश्क़ का नाम लो 

तो शक्ल मेरी ही हो। 


Monday, 9 January 2023

वही कश्मकश नये लिहाफ़ में

 मैं भूल जाती हूँ

भूल जाती हूँ कि क्या सीखना है 

कहाँ ग़लतियाँ हुई है

कहाँ सुधार करना है

दुनियावी तरीक़ों में हार जाती हूँ 

उसके ऊपर

भूल जाती हूँ कि करना क्या है इस ज़िंदगी में

मैं कई बार आयी हूँ

कुछ कहानी कुछ क़िस्से इस बार भी बुन के छोड़ जाऊँगी 

जब देखा अपना अतीत 

थी खूबसूरत, घुंघराले बाल और छोटा क़द

साथी एक सुडौल शरीरवाला लंबे बाल लंबा कद

कुछ अड़ा हुआ है 

रोक लेता है जैसे अंदर से

एक मुश्त उसको निकाल फेंकना है 

शायद चाहत में कमी है 

जो आज प्यारा है 

वो कभी किसी और का साथी था

जो औरत है वो आदमी था

जो सूरत है वो सूरत ना थी

सीरत सबकी अलग अलग थी 

सबकी कहानी है

मुझे भी बनानी है

फिर क्यों खोयी सी हूँ

किस बात से उधड़ी और किस बात पर रोयी सी हूँ 

अनकहा सब उलझा हुआ है

कहा का कोई मतलब कहाँ है 

किन रिश्तों में आँखें रोयी हैं

इस दुनिया से कई कड़ियाँ जो जोड़ी हैं

क्या मतलब है हर एक रुसवाई का

क्या होता है वादों की तुड़ाई का

मैं सब भूल जाती हूँ

घर की कहानी 

वो छोटी बातें 

पापा का राशिनाम 

बाबाजी का १४ पुश्तों का हिसाब 

जिसे प्यार जान चुना मैंने 

या समझा था ऐसा 

उसकी पहली मुस्कान 

पहली छुअन

मेरे सपने, मेरा मक़सद 

कहीं जाने के लिए उठना 

कहीं उठ कर पहुँचना 

ज़िम्मेदारियों को निभाना 

ख़ुद के अहम को साँस देना 

सब भूल जाती हूँ 

खोखले अहम और खोखले हैं सपने भी

वरना भूलती नहीं मैं

कुछ तो है 

वो चिल्ला के निकलने को बेताब है

रो रो के सैलाब लाने को तैयार है 

पर मेहनत की कमी है या 

अतीत का कोई असर 

नये पाठ की है कोई बनावट 

या फिर बस आलस का है असर 

पर मैं भूल सब जाती हूँ 

अंदर से उठती है हुंकार 

कि साँसों के आने जाने को जान लेना 

मुझे समेट कर उभार देगा 

सब शोर हटा के 

नये समंदर में उछाल देगा 

फिर चाहे सब भूल जाऊँ

शिवा हो या सती 

बस तुम्हें ही याद रह जाऊँ 

तुम्हें ही याद कर पाऊँ

बस तुम्हें। 

हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...