Monday, 25 September 2023

शब्दों का जाल

 ख़ुद के शब्द 

बेवजह बस बात करने की 

रवायत का हिस्सा जैसे 

ना मतलब कोई उनका 

कहीं से आयीं थी मुझमें 

और किसी के सामने 

निकलने को बेताब 

वही घूम घूम के 

बस वही वहीं 

अच्छा! 

लहरें भी तो घूम घूम के वहीं आती है 

तो क्या बेमतलब हो गयीं वो 

शब्दों का पूरा समंदर है 

और उनका निकलना 

लहरों की संगत सा है 

रूठ के शब्द चले गये 

गले से कहीं दूर 

नीचे उतर गये 

उस दिन बिना मौन 

किसी से बात ना हुई 

क्यों क्या हुआ? 

सवाल का जवाब देने भी ना आये

अहम भी है इनमें 

अच्छा भई! 

कितना बोलूँ 

कि इन शब्दों के निकलने से 

मुझे मैं बेईमान झूठी ना लगूँ 

मछलियाँ है क्या अंदर 

जिनको ऑक्सीजन चाहिए? 

केकड़े और फंगस भी? 

शब्द समंदर की लहर है भी क्या? 

या उसी का एक नया जाल? 

जिसमें मैं फिर से फस गई? 

मछली है कौन? 

कहीं मैं तो…. ? 

मैं तो समंदर…..





4 comments:

Sweta sinha said...

भावपूर्ण रचना।
सादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २६ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर भाव

Sudha Devrani said...

शब्द समंदर की लहर है भी क्या?

या उसी का एक नया जाल?
वाह!!!
बहुत सुन्दर सृजन ।

हरीश कुमार said...

बहुत सुंदर रचना

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