शब्दों का जाल

 ख़ुद के शब्द 

बेवजह बस बात करने की 

रवायत का हिस्सा जैसे 

ना मतलब कोई उनका 

कहीं से आयीं थी मुझमें 

और किसी के सामने 

निकलने को बेताब 

वही घूम घूम के 

बस वही वहीं 

अच्छा! 

लहरें भी तो घूम घूम के वहीं आती है 

तो क्या बेमतलब हो गयीं वो 

शब्दों का पूरा समंदर है 

और उनका निकलना 

लहरों की संगत सा है 

रूठ के शब्द चले गये 

गले से कहीं दूर 

नीचे उतर गये 

उस दिन बिना मौन 

किसी से बात ना हुई 

क्यों क्या हुआ? 

सवाल का जवाब देने भी ना आये

अहम भी है इनमें 

अच्छा भई! 

कितना बोलूँ 

कि इन शब्दों के निकलने से 

मुझे मैं बेईमान झूठी ना लगूँ 

मछलियाँ है क्या अंदर 

जिनको ऑक्सीजन चाहिए? 

केकड़े और फंगस भी? 

शब्द समंदर की लहर है भी क्या? 

या उसी का एक नया जाल? 

जिसमें मैं फिर से फस गई? 

मछली है कौन? 

कहीं मैं तो…. ? 

मैं तो समंदर…..





Comments

Sweta sinha said…
भावपूर्ण रचना।
सादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २६ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
Sudha Devrani said…
शब्द समंदर की लहर है भी क्या?

या उसी का एक नया जाल?
वाह!!!
बहुत सुन्दर सृजन ।
बहुत सुंदर रचना

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