जब दो लोग एक दूसरे से कहने लगे
बात करने को कुछ ना बचा
क्या बात करें!
क्यों बात बात बात करनी है
तो सच में कहने को कुछ ना बचा उनके बीच
पर किसने कह दिया उन्हें
बातें सिर्फ़ ज़ुबान करती है
शब्दों से ही होती है बातें
भाई, सिले होंठ दास्तान बयान कर जाते हैं
आँखें करती हैं बातें
भौंहों का सिकुड़ना, हाथों का छूना
साथ होने का सुकून
बहुत सी बात करता है
फिर सवाल आया ग़ुस्से में
पर भई क्या बात करनी है?
साँसों में पिरो लेना है
इतना कि
मेरी धड़कन अपना पता दे जाए
इस हद तक रहना है तुममें
और तुमको ख़ुद में
बात तो मुझे भी नहीं पता
क्या करनी होती है!
ना घर की ना दुकान की
ना ज़मीन की ना ईमान की
ना पड़ोस की ना असमान की
ना नज़रों की ना नज़ारों की
या दुनिया की ना दावेदारों की
इस बार झल्लाहट आयी एकदम तेज़ हवा सी
कि भई समझा तो दो
कि क्या बात करनी है?
क्या बात करना चाहती हो?
जो हर वक़्त यही रट लगाये रहते हो?
अंदर कुछ ज़ोर ज़ोर से कह रहा था
जवाब में शायद
बाहर सन्नाटा था
कि जैसे कोई बात ही ना हो!
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