Sunday, 7 February 2016



ये समन्दर का किनारा देख रहे हो
फलक झुक जाता है 
सारी अकड़न छोड़ के
जब इल्ज़ाम लगता है
उसपे बेवफाई का
अर्श गिरता नही फर्श पर
वो तो उस कोने पे
हाँ वही जहाँ तुम देख रहे हो
मिल जाते है कुछ यूँ जा के
ये उनका घरौंदा है शायद
दुनिया से छुप मिलते है वहां 
जहाँ कोई उन्हें छु न सके
देखने से उन्हें परहेज़ नही शायद

तुम्हे पता है,
मैं जब थक जाती हूँ
दुनियावी दिखावो से
अपना भी एक क्षितिज चाहती हूँ
जहाँ ये पता न चले
मैं उठ के तेरे पास आई
ये तू झुक के मेरे साथ चल पड़ा
मैंने पानी की बौछारे मारी
या तू थक कर उनमे डूब सा गया
जहाँ तेरे नाम से मेरा नाम नही
वजूद से मेरी पहचान जुड़ जाये
जहाँ वो पहुचना चाहे
फिर हम और दूर नज़र आये

क्या ऐसा एक क्षितिज हमारा हो सकता है?

3 comments:

Anonymous said...

Aaj take sirf suna tha ki "जीवन ठेहराव और गति के बीच का संतुलन है".......apke har ek blog ko padh k ab ye smjh me bhi aane lga .... Thank you

Kehna Chahti Hu... said...

Thank you mr./ms anonymous

Anonymous said...

Thank You Miss Blogger.....you truly deserve it....

From: Mr. Anonymous

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“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...