ये समन्दर का किनारा देख रहे हो
फलक झुक जाता है
सारी अकड़न छोड़ के
जब इल्ज़ाम लगता है
उसपे बेवफाई का
अर्श गिरता नही फर्श पर
वो तो उस कोने पे
हाँ वही जहाँ तुम देख रहे हो
मिल जाते है कुछ यूँ जा के
ये उनका घरौंदा है शायद
दुनिया से छुप मिलते है वहां
जहाँ कोई उन्हें छु न सके
देखने से उन्हें परहेज़ नही शायद
मैं जब थक जाती हूँ
दुनियावी दिखावो से
अपना भी एक क्षितिज चाहती हूँ
जहाँ ये पता न चले
मैं उठ के तेरे पास आई
ये तू झुक के मेरे साथ चल पड़ा
मैंने पानी की बौछारे मारी
या तू थक कर उनमे डूब सा गया
जहाँ तेरे नाम से मेरा नाम नही
वजूद से मेरी पहचान जुड़ जाये
जहाँ वो पहुचना चाहे
फिर हम और दूर नज़र आये
Comments
From: Mr. Anonymous