Tuesday, 26 December 2017

जब लफ्ज़ न बयां कर पाए
उस लम्हे में मोहब्बत की है,
वादा करने से कतराता हूँ
वादाखिलाफी से बगावत की है,
जुदाई में बेवफाई का रोष नहीं
इसलिए जाते वक़्त रुस्वाई नहीं की है। 

Monday, 25 December 2017

'तुम दोनों'

मेरे होने से तुम्हे कुछ शिकायत है क्या
अब बात में कोई जिरह नहीं होती   
मैं हाल पूछती हूँ, तुम खबर पूछते हो
अब मिलने की गुजारिश नहीं होती
तुमसे बात से पहले दिल टटोलता है खुद को
कई दफे गहरी सांस लेता है
जैसे पूछता हो अंदर ही
कि संभाल लोगे न?
ये गहरी साँसे पहले भी होती थी
पर मुस्कान और गुफ्तगू के लिए,
अब तो कोई जवाब ही नहीं होता।
कुछ सवाल में सवाल जुड़ जाते है
कहने को जवाब मिल जाते है
ऐसी बातें करने में भी
शायद किसी रिश्ते ने  सिफारिश लगाई होगी।
वरना आजकल तो पहले की तरह
उंगलियां नहीं थिरकती मेरे नाम पर।

एक काम करते है....
जब मैं पहली बार मिली थी
तो तुम खुश थे
तो चलो फिर से अजनबी  बन जाते है
ये मजबूरी नहीं भाती मुझे
तुमसे फिर से मिलना चाहती हूँ
फिर से उन्ही बाहों में लिपट के
सो जाना चाहती हूँ।
और तुमसे जैसे पिछली बार
साल की आखिरी रात को मिली थी
वैसे ही मिलना चाहती हूँ।
बिना सोचे कि तुम थके होंगे
तुम्हारे हाथो की थकान से अनजान
पूरी रात वैसे ही लिपटना चाहती हूँ।
दाढ़ी के बालों से चिढ के
अपना हाथ तुम्हरे सीने से रगड़ना चाहती हूँ
तुम्हरी थाली में ही आधा तिहाई खाना खा के
कही तो बाहर भाग जाना चाहती हूँ
तुमसे डाट खा के
तुम्हारे ही पेट पे सोना चाहती हूँ
उन नाखूनों, सर के बालों की रुसी,
पैसों के लिए अलग से हम दोनों का हिसाब
उधारी और वापस कर देने का वादा
मेरी पढाई का कुछ पता न होना
मेरे रिजल्ट पे खूब खुश होना
मुझे अकेले ज़माने से जीतने को छोड़ देना
मेरे हारने पे बस चुप रह जाना
मेरे फिर से उठने पे मुझे जाने देना
मैं फिर से बिना कुछ सोचे
वही 'गम्मू' होना चाहती हूँ।

ये जो मेरा 'तुम' हो
वो तुम दोनों हो
ऊपर लिखा सब तुम दोनों हो
दोनों ही मुझे एक दूजे के लिए
छोड़ रहे है, छोड़  नहीं भी रहे है।
तुम दोनों चाहते हो
मैं एक को छोड़ दूजे के साथ चल पडूँ।
पर जब पिछली बार
तुम्हे छुआ तो
ढलती उमर की लचक और कमज़ोरी दिखाई दी
आँखों में मुझसे उम्मीदें दिखाई दी
 तो लगा कि तुम अब वो नहीं
मुझे 'मैं'  से अब 'तुम' बनना पड़ेगा
अपने कंधे को मजबूत बना
उन पर तुमको आराम देना होगा
और तुम जो अब भी जवान हो
बस साथ देना मेरा
पर तुम दोनों खफा से हो
मैं तुम दोनों के जानिब हर कदम आगे बढ़ रही हूँ
मुझसे मेरा हाथ मांगो
पर इसे काटो नहीं
वरना कही मेरा कन्धा टूट जायेगा
कही मेरी मेरुदंड झुक जाएगी
बहुत काम बाकी है
अपाहिज हो काम करना मुश्किल हो जायेगा।
सीखा तुमसे है ज़िन्दगी के कई फलसफे
बिना तुम्हारे  इस कविता का शीर्षक
बनाम हो जायेगा।






Friday, 17 November 2017

ये बात है, तकरार नहीं

तुम मुझे माटी समझ रौंदों
ये तुम्हारा फ़र्ज़ होगा। 
मिट्टी की उड़ान को 
सुबह-ओ-शाम पानी डाल 
ज़मीं के सीने में सुला देना 
इससे भी ख़फ़ा नहीं,
ये तुम करोगे ही। 
मैं तो वो घास हूँ 
जो हर सतह पर उग आएगी 
तुम्हारे चाहे अनचाहे,
तुम बिना काम का समझ 
उखाड़ फेंकना,
या सुन्दर कलाकारी जो मेरे साथ जन्मी है 
उसे तराश घर आँगन सजाओ,
ये भी तुम्हारा फ़र्ज़ है। 
तुम ये करोगे भी 
क्युकी तुमने यही सीखा है 
और ज़िम्मेदारी भी ली है। 
पर तुम अब चाहते हो और तगड़ी पकड़ 
तुम मुझे डामर में लपेट 
बड़ी बड़ी मशीन से 
सुन्दर सपाट बिछा देना चाहते हो। 
उस पर सफ़ेद काली पीली पट्टी बना,
'उनको' रास्ता बताना चाहते हो। 
एक स्मारक बनेगा तुम्हारा 
क्युकी तुमने अपनी मेहनत से 
मुझे एक छोटी गली से 
बड़ी पक्की मेटल रोड बनाया है। 
रोड तुम्हारे नाम की होगी 
वो सफ़ेद पट्टी मेरी सीमा 
और घुमावदार निशान 
आने वाली उड़ान की इच्छा रखे बचपन को 
तुम्हारे सधे सधाए रास्तों पर चलने का रास्ता बताएँगे।  
हाँ, तुमने ही मुझे आज़ादी दी। 
पर वो अब आज़ादी की परिभाषा में उड़ान शामिल है, 
सवाल शामिल है,
उनकी खोज की लालसा              
और उनके जवाब भी आखिर में शामिल है। 
मेरे अस्तित्व से गठबंधन है अब उसका 
और मैं ये वादा करती हूँ 
किसी पर ये आज़ादी थोपूंगी नहीं,तुम्हारी तरह। 
हिम्मत ज़रूर दूंगी 
सपने देखने की, 
जैसे तुमने मुझे दी है 
और आज भी दे रहे हो। 
पर हाँ, अगर मैं घास हूँ, तो 
'पाश' की घास से मुकाबला करना मेरा 
मैं ज़िद्दी  हूँ 
मैं हर दफे निकल आउंगी।
हरा रंग मेरा है, 
मज़हब न पूछो तो मैं हरियाली ही लाऊंगी।  


Saturday, 4 November 2017

गठबंधन

वो आज आईने के सामने खड़े हो
खुद के ,
पुतलियां घूमा,
हर कोने की तलाशी ले रही थी
जैसे जानना चाह रही हो
कि सही से तराशा है या नहीं।
आंखों के पास
अरे नाक के बाई तरफ भी
दो काले भूरे तिल
निकल आये है
उसको भाए नहीं।
हल्के से बाएं हो के
उसने बगलों को झाँका
वो थोड़ी भरी भरी दिखी
झुर्रियों को देख आंखों के किनारों पे
गाल के गड्ढो को
हस के गहरा कर दिया
और गहरा गयी झुर्रियां भी।
उसके टूट्ठी पे
बायीं तरफ एक काला मस्सा है
सुंदर लगता है
उस पर एक काला बाल निकल आया है
बिन बुलाए मुसीबत जैसा,
वो उसे हर बार दांत से काट कर
निकाल फेंकता है,
शुक्र है, वो फिर से निकल आता है।
वो ऊपर से नीचे तक खुद को
धब्बों में जकड़े सीसे में
सवांरती रही।
पलटी और फिर चली गयी
आईने को कोरा छोड़।
शाम में
कागज़ को पानी से नरम कर
उन धब्बों को
मिटा दिया रगड़ के
आईना साफ था अब
पर अब रोशनी जा रही थी
उसने हल्की रोशनी में
उंगली से छू के
आंखे सिकोड़ के देखा
वो टूट्ठी के मस्से का काला बाल
फिर से कमबख्त आ गया है
आज फिर वो दांतों से उसे निकाल फेंकेगा।
वो पिछले पांच दिन से
एक दूजे से ख़फ़ा थे
खटपट आम है उनमें
पर कमबख्त तिल का ये काला बाल
'सिर्फ काम की वजह से'
उसके होंठो और
उसकी टूट्ठी को
कई बार की तरह
फिर बाहरी गठबंधन पे
मजबूर कर दिया।









Friday, 29 September 2017

दिल्ली में कुछ की दरगाह ही होगी ये! नइ क्या?

ना ये एक कहानी है और ना ही इसे हक़ीकत मैं कहना चाहती हूं। क्युकी ये पर्दाबंद ज़िदगी है जो जवान हो चुके बच्चो से दूर बड़े और बड़ों की नज़र से अलग वो बच्चे जीने की चाह रखते है। पर हाँ, यह रह चुकी है कई कहानियों का हिस्सा। किसी की ज़िन्दगी का सबब तो किसी की मौज की दरगाह। दरगाह! दरगाह?
ना, मैं बिल्कुल भी कोई साहित्यिक रचना करने की कोशिश में नही, जो सबको पढ़ के अच्छा लगे या पसंद आ जाये। बस समझ नही पा रही कि इसे कैसे लिखूं। पर लिखना तो है। लिखना है खुद की एक और असलियत के बारे में। जो सिर्फ उनके गलियारों से गुज़रते मेरे सामने आ खड़ी हुई। कितनी बईमान हूँ, कितनी दिखावटी और कितनी नासमझ।
मेरी उलझन और मेरा अन्तर्द्वन्द मैं आप तक उसी अलह्ड़ रूप में दिखा पाऊं जैसे वो मुझमे उछल कूद मचा रहा है तो मैं सफल मानूंगी इस लेखनी को। 


भीड़ इतनी जैसे चिल्लर का बाजार लगा हो
भीतर गलियों में,
मॉल में तो क्राउड होता है
'जेन्ट्री' वाला रश होता है।
रिक्शा गाड़ी
बड़ा बूढा
लड़का लड़की
ना ना अच्छा हाँ हाँ
रिक्शे पे जाने वाली कई
सवारी।
मसाला चाय पेंट दुकान
बैंक पुलिस सबका
इंतज़ाम
दुकानों पे चढ़ता उतरता
गट्ठर बोरा भर सामान
उसी के आगे
चांदनी चौक का मसाला खादान।

ऊपर घर भी थे
एक लम्बाई में
सब जुड़े जुड़े थे।
जैसे बनिया लाला का
परिवार अलग अलग कमरों में
एक छत में रहता हो।
पूरा का पूरा कुनबा
यही बसता हो।
क्या प्यार होगा
क्या भाईचारा होगा
इस गली में  तो
हर आने वाला दुलारा होगा।
सारी औरतें  मिल के
खिलाती होंगी
दुआएं मिल खूब लाड लड़ाती होंगी।

ये समाजशास्त्रियों को यहाँ पढ़ना चाहिये
अलग अलग मालिक
और एक छत में रहने का
हुनर सबको बताना चाहिए।

पर ध्यान दो तो ये घर अलग था
एक ही खिड़की और
घर संख्याबद्ध था।
कुछ वहां से झांक रही थी।
शाम होते होते
दुकानें बंद हो गयी,
बनिया लाला बैंक मुनीम
सब बस्ता लिए ऊपर घर न गए।
लाइट जली नीचे भी और ऊपर खिड़की में भी,
दिन में डूबी सी आँखें तेज़ सुनार हो गयी।
हंसी चीख मसालों की छींक बन गए
दिन के मज़दूर रात में शेख बन गए।

घर की औरतें वैसे ही आदमी के इंतज़ार में
बस 'बाप' नहीं किसी भी 'पडोसी' के प्यार में
कोई मन्नत ले कर आता
बड़ी दुआ में बड़ा प्रसाद चढ़ाता
और खुश हो के
या फिर और ख़ुशी की उम्मीद में
खिला सा बाहर आता।
इनमे भी बटवारा है
अमीर हर जगह मुँह मारा है
इस गली में तो
सबकी अपनी हिस्सेदरी है।

मैं डरी थी उनको देख कर
मेरे जैसी पर वो रंडी थी।
मुझे भी किसी ने कहा था
'रंडी रोना' मैंने भी सुना था।
देखना चाहती थी
वो कैसे रोती है
मुझसे अच्छा या बुरा या मेरे जैसा ही रोती  है।

वो तेज़ थीं
मज़हब की पक्की थीं
एक कॉर्पोरेट वाली की तरह
एकदम कामतोड़ औरत की तरह
खुद्दार कट्टर मज़हबी की तरह
उनको दम भर काम आता है
अपना पेट पालना आता है
पर उनका नंबर है नाम नहीं
उनका काम है ईमान नहीं।
अच्छा, स्वच्छ भारत कब आएगा
अच्छा भारत नहीं, तो स्वच्छ कब आएगा
इनका भी कोई नेता है फोटो में क्या
इनमे से कोई तो होगी
उसकी भी फोटो खिंचवा दो
गाँधी की एक आंख का चश्मा ही दे दो
दूसरी का आधा भारत
चोरी-छुपे गाहें-बगाहें
यही से गुज़रता है।

 ख़याल बहुतेरे है
आयाम किनारे भी बहुत
पर इतिहास की इन दुलारी को नीलामी का डर क्या
हम जैसे इज़्ज़त वालों की रखवालियों को
उन घर में बसती मोहब्बत की समझ क्या
मैं उस दिन डर के वापस आयी
और अब हर दिन 'अच्छे लोगों' का
मुखौटा पढ़
अपनी तरह के डरपोकों की
एक गैंग बना रही हूँ।
वहां न जाने की नसीहत का
खाका सजा रही हूँ।






Thursday, 28 September 2017

वो क्यों नही समझता?
ये कह कह के
पूरी रात रात के संग जागी।
और पूछा उससे वो क्यों नही समझता?
रात गली में अंधियारा ढूंढ ज्यूँ आंख लगाए
में फिर से पलट पूछ लूं
वो क्यों नही समझता?

वो बोली जाने दे,
चल तू मेरे संग आ
मैं तो हर रोज़ तेरे संग आती हूँ
जब तू उस संग बिस्तर पे
पड़ जाती है
दोनों एक चद्दर में
वो तेरी आँखों से नाभि तक भूगोल मापता
उसके एहसास से तू उसका इतिहास पढ़ती
जब वो बिना कहे
तेरे स्तनों पे अपना नाम करोता है
क्या वो तब तुझे समझता है?
तेरे आंसू से वो डरता है
तेरी इस रात से घबराता है
वो बहुत कमजोर है
तुझ तक वो पहुच ही नही पाता है।

इसका क्या मतलब?
क्या वो मुझे नही समझता?
मैं उसे आसमान में लिखना चाहती हूँ,
अपने होंठों से उसको सहला के
माँ का स्पर्श देना चाहती हूँ।
मैं उस संग हर दरख़्त
हर कली खिलना चाहती हूँ
मैं उससे प्यार करना चाहती हूं।
वो मुझे दुनियावी नामों में संजोता है
में उसे उस नूर तलक सजा के
खुद बाग़ी बनना चाहती हूँ।
मैं हर पहाड़ हर नदी हर पत्ती
हर झुरमुट हर शंख
एक पता लिखना चाहती हूँ।
मैं उसे अपना हर एक हिस्सा देना चाहती हूँ
पर वो मुझे पागल कहता है।
उससे न कह पाने की
उसकी नज़र में खुद की समझ न पाने की
एक कसक है मुझमे
उसके नाभि से सटे बालों से खेलते
कई बार सोचा कि
वक़्त को पैमाना बना मैं इश्क़ में डूब जाउं
वो बेख्याल किसी सजी गुड़िया में
कुछ राजनीति के एरिस्टोटल को खोजता मिला।
उसे सीधी अपनी दुनिया समझती है
मै अभी के लिए उसका हिस्सा हूँ
पर मैं अपना तख्त चाहती हूं
एक ताजमहल नही
मज़ार पे एक नज़र चाहती हूँ।
मैं उसके संग पूरी दुनिया का हर हिस्सा छूना चाहती हूं
जो उसमें समाया है
मैं सच उसके सपनो की रानी बनना चाहती हूँ।
कभी वो चाहत मुझे दिखे
कि वो तड़पता है मेरे लिए
मैं वो एहसास वो रबाब चाहती हूं।
वो मेरे लिए मेरी कोख़ से अजन्मा लाड़ है
मैं उसके लिए न जाने क्या बनना चाहती हूं
जिसे वो कभी न भूले
मैं खुद को उसकी समझ बनना चाहती हूँ।

मेरी रात सो गई
मेरे कंधे सिर टिकाये
धीरे से उसने चादर फैलाया
और मुझे भी बुला लिया अपनी बाहोँ में
वहां हम दोनों
एक चद्दर में लिपटे
एक दूसरे के हाथ को लपेटे
सो गए थे
रात भी वही सो गई थी।

Friday, 28 July 2017

ओ मोदी जी

ओ मोदी जी, मेरे गांव भी आओ जल्दी।
बच्चन भेजो, अनुष्का भेजो
बोलो मेरे यहाँ भी जल्दी आये
बच्चे लाये आदमी लाये
माताएं और बहनें लाये
दरवाज़ा बंद तो बीमारी बंद वाला 
नारा इन्हें भी समझाये। 
आज सुबह फिर ट्रेन सफर था
बाहर का नज़ारा भी वही था  
अध नंगे चाचा ताऊ भैया
खुले में दिख जा रहे थे
इस बार न वो हमसे
न हम उनसे शर्मा रहे थे
हम मोदी बच्चन को याद किये 
बस उनको घूरे जा रहे थे। 
औरतें नही दिखी 
इसका मतलब ये नही कि
दरवाज़ा बंद हो गया
बस भोर में निपटने का स्लॉट बंध गया।
वो अंधियारे में जाती है
काम खत्म कर दुरुस्त हो के आती है। 

ओ मोदी जी, मेरी शादी को लड़का मिल गया।
कुंडली मिल गयी,
शौक मिल गया,
शौचालय न मिला, 
मामला गड़बड़ हो गया।
मैं भी प्रियंका बन भूचाल हो गयी
कुंडली से मैच लड़का छोड़ बदनाम हो गयी
सब बोले ये तो बन जायेगा
लड़का तहसीलदार हो गया,
ये तो बन ही जाएगा।
हम डर गए शौचालय से सोच जोड़ कर
एकांत में अकेलेपन का घूंट पी कर।
हमारे यहां भी अनुष्का भेजो।
लड़के जल्दी मानेंगे
गांव में बच्चन के नाम पर कुछ नेता 
जल्दी शौचालय बनवाएंगे।
बच्चन संग अपने आला कमान भेजना
पता चला बिग बी पे ही मुकदमा चल जाएगा
कई लोग है जिन्हें न घर मिला
न शौचालय
उनका गुस्सा किसी से अब न डर के रह पायेगा।
ओ मोदी जी तुम ही आ जाओ
उत्तर का गांव है मेरा
चुनाव बिगुल बजा जाओ।
कोई एक नई शुरुआत 
हमारे यहां से भी कर जाओ।
तुम तो जादूगर हो
नया नया कुछ लाते हो
एक नया प्रसारण 
यहां से भी फैला जाओ।
अच्छा, तब तक के लिए
सब लोग खड़े हो के,
जन गण मन बजने वाला है,
उसको सुन के भारत माता की जय नारा लगाओ। 

Wednesday, 19 July 2017

मैंने देखा है

वो पीछे वाले कस्बे में आग लगी है
मैंने आज आसमान में उठते बादल देखा है।
आज माँ को सफेद विधवा साड़ी में
लाल सिंदूर अपनी मांग भरते देखा है।
वो खनक खनक कर जाती थी जो
उस पगली को संवर के बेरंग कजरी गाते देखा है।
झूले पे झूली वो आसमाँ को ताके
उसने भी उस धुएं से बादल को उठते देखा है।
पाश को सुन के सोई 'देसी'
आखिर में थी रोई 'देसी'
मैंने कई कौतूहल को भीड़ में सन्नाटा होते देखा है।
उस सांय सांय टिक टुक झुर मुट में
एक नई सांस को टूटते देखा है।
शोर हुआ है, बातें घूम घूम कर शोर मचाये
दाएं बाएं ऊपर नीचे जगह मिलते ही घुस जाए
मैंने इस जाल बवंडर में सुबह के कपोल को
झर झर सूखे पत्ते सा बूंदों संग माटी माटी होते देखा है।
वो पगली जो झूल रही थी
जो बेरंग कजरी बोल रही थी
उसको बारिश में बचते देखा है।
उस कस्बे की आग बुझ गयी
इस खुशी में मैंने उसकी आग को कसमसाते देखा है।
पत्तो की सर सर में उसके सीने की अनगिनत साँसों को हिलते देखा है।
मैंने आज अपनी माँ को सफेद साड़ी में लाल सिंदूर लगाते देखा है।

Tuesday, 20 June 2017

कौन है ये 'मैं'?

वो एक लड़की की बात करते है,
कोई खिड़की खुलने की बात करते है,
कोई दंगो में मरने वालों की गिनती करते है,
तो वो ज़िंदा लाशों की बात करते है।
वो शाम में टी वी पे ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते है,
कोई उस चिल्लाने को सख्ती से नकारते है,
वो इसका विरोध करता है।
वो उसको सहमी आवाज़ से भड़काते है
कोई चिल्ला के भी जान लगाता है,
वो अकेला शाम को रोज़ बस्ता खोल
कुछ नया लेकर आता है
और वही पुराना बोल जाता है।
कोई अच्छी कविता लिखता है,
कोई कामुक तस्वीरों से लाड लड़ाता है,
वो उनका भी विरोध करता है।
वो जवानों के छालों पे रोते है
इंडिया हार जाये तो पी के सोते है,
हॉकी में जीते तो भी क्रिकेट का शोक मनाते है,
ये भारत के नही केवल फेसबुक ट्विटर के भी रखवाले है।
कोई पान वाला ग्वालियर से राष्ट्रपति बनेगा,
ये सोच चायवाला हँसता है,
कितना हारोगे ये उससे कहता है,
वो उसपे भी विश्वास जताते है,
ये तो गाय को चीते से बदलवाते है,
वो उसका भी विरोध करता है।
रोज़ सांझ कुछ नया लेकर आता है
वही पुराना बोल के चला जाता है।
मैं लिखने की शौकीन
अनपढ़ पर लिखने की शौक़ीन
जब जब खोलूं ये छोटा पिटारा
तकिया पकड़ देखूं दिन का नज़ारा
बह जाने का डर है सताये
'वो' क्या कहते 'ये' क्या सुनते
'कोई' क्या नया खेल रचाता
ये देख दिमाग बौरा सा जाए
फिर कुछ अच्छे गीत जो देखूं
अपनी लेखनी पे शर्म आ जाये
मैं थोड़ी पगलेट
फिर भी लिखने का जी मन भर के आये
पर इन सैकड़ो कहानी में
मै खो जाती हूँ।
इस रंगमंच के फंग मंच का जोकर
बिना पहचाने रसीली कविता
एक विलेन से सुन के सो जाती हूँ।
ठहराव बेचैनी मुर्दा अकड़ शिथिलता
अस्थिर गंभीर नासमझी
इन सब मे कही न कही खुद को
भीड़ का हिस्सा पा
खुद को समाज का रखवाला समझ
मुस्कुराती हूँ।
मैं फिर कभी गांधी कभी मोदी
कभी कन्हैया कभी पटेल
अब तो अम्बेडकर वाली भी बन जाती हूँ।
बड़े रखवाले आ गए है।
वो ये सब बोलने वाले आ गए है
मैं भी कभी हास्य की
तो कभी वीर रस कविता बन जाती हूँ।
श्रृंगार तो वैध है शायद
मैं कभी कभी रूपक में गालियों की शोभा बन जाती हूँ।
मैं मैं कब रहती हूं
इसका एहसास अब दूसरे कराते है
कभी कभी मैं अपने अस्तवित्व का भी आईना दिखलाई जाती हूँ।
मैं ऐसे ही इनसे उनसे मिल के
इस समाज का
बरसो उलझी कहानी से जनी
नई जमात का नया हिस्सा बन जाती हूँ।
मैं बड़ी बड़ी होर्डिंग का मुस्काता चेहरा बन जाती हूँ
किसी के गुस्से का हिसाब बन जाती हूँ
मैं यूँ ही सुबह चाय और रात में बियर बन जाती हूँ।


Sunday, 4 June 2017

कोई तो होगा जो ये बताएगा
ये चार चांद कब हुस्न चढ़ायेगा
कोई तो होगा जो ये बताएगा
चकोर की चाकरी से पर्दा उठाएगा
कोई तो होगा जो ये बताएगा
ये रात आधी क्यों मेरे संग आयी है
जा के उसको समझयेगा
आधी उसके गलियारे में टांगी है
कोई तो होगा जो ये बताएगा
इश्क़ दुआ हो या दवा
उसे खाने के बाद रोज़ खिलायेगा
कोई तो होगा जो ये बताएगा
रात चांदी से सोना कर के जाएगा
कोई तो होगा....
मेरी बहती हँसी को रास्ता दिखायेगा
कोई तो होगा जो बताएगा
मेरी चाहतों पे मरना सिखाएगा
कोई तो होगा जो ये बताएगा
सुबह की लुका छुपी वाला प्यार दिखायेगा
कोई तो होगा जो ये बताएगा
में यहां वो वहां...इस सूरज का फर्क समझायेगा
कोई तो होगा जिससे में ये पूछुंगी
बिना जवाब खिलखिला के मैं हसुंगी
वो पगली बोल के यूँ चला जायेगा
में जर्मनी में बैठी रात 10 बजे दिन को जाना सिखाऊंगी
कोई तो होगा फिर जो बताएगा
रात घड़ी से नही सूरज के जाने से है, वो ये सब समझयेगा
कोई तो होगा....
जो मेरी गुड़िया को बचपना खिलायेगा
उसको सवालों के कपड़े पहनायेगा
उसकी खुशियों को चाभी बना के
घर की मोटर से पानी खिचायेगा।
कोई तो होगा....

Monday, 22 May 2017

गिर के तू उठे वही
जब हार की भी हार हो।
नभ तलक पुकार हो
जब तेरी सिंह दहाड़ हो।
अश्रु बन भीगा दे लब
बहा तू अशांत नीर को
जो रोकने का साज छेड़े
हटा दे उस ज़मीर को।
तू बना नही जो गिर के
उठने को तैयार नहीं।
नभ तेरा आसमां नहीं
क्षितिज तेरा किनार नहीं।
बाधायें लाख हो मगर
तू उठ खड़ा हो रुद्र बन
विष भी उग्र हो उठे
ऐसी एक कंठ रख।
कमी तुझे झुकायेगी
विनम्रता से दबायेगी
मस्तिष्क चाल खेलेगा
दुर्योधन सा मन,
शकुनि सा हठ निचोड़ेगा।
तू कृष्ण की पुकार सुन
अर्जुन सा धैर्यवान बन
लगे कि घात तीव्र है
तो, भीम सा प्रहार कर।
कठिन गर कठिन लगे
तो, विश्राम से जुगाड़ कर
उसके रुष्ट होते ही
विश्राम मिल पुनः तू प्रहार कर।
है बड़ा वियोग ये
मातृ पितृ भाई मित्र
बना इन्ही को वजीर तू
फिर सह पे मात जीत कर।
इस लगा लगी के खेल में
एक वीरता का मान हो।
एक मुट्ठी हँसी की हो
चुटकी भरा विश्वास हो
साथ हो गुरु का जो
पथ नया प्रशस्त हो।
 तू चले तो बने अनेक
ऐसी एक अस्त्र हो।
चल उठ सजा ये देश
जिसमे हिन्दुस्तां का अर्थ हो।
जहां मानवता प्रवृत्ति हो।



Monday, 8 May 2017

कश्मकश

शराब की महक और
उसके बदन की खुशबू
कुछ चुरा लायी थी
वहां से आते आते
शाम को मेरी चादर से
वो महक रही थी।
मेरी सांसो में
सच, कोई किस्सा नही है ये,
महक रही थी सुबहो में।
मैंने भी गुलज़ार की नज़्मों के बाद
आज महसूस किया
जब उसके पास से वापस आयी थी।

वापस आयी थी
उससे रूस कर
उससे शिकवा किया
तो 'चली जा' कह कर
चला गया वो।
न, मै शिकायत नही कर रही।
या शायद कर रही हूं।
पर इन शिकायत से
वो मोहब्बत की जान निकाल कर
मुझे बेजान छोड़ देता है।

ना माप रही उसकी मोहब्बत
 गुस्सा आंसूं में बहा
शाम चादर से खुशबू ओढ़
यूँ ही बेकाम बितायी है मैंने।
और मान रही हूं तज़ुर्बे से,
कि उसकी मोहब्बत
नए जमाने की कामपरस्ती
और समाज की रवायतों
से डर के बना प्यार है।
जब तक बंद कमरे का है
चले जाने की बाबत
कई दफे आवाज़ उठती रहेगी।

अक्सर कश्मकश में पड़ जाती है जान
इश्क़ है तो चले जाने की बात
तैयार क्यों रहती है लफ्ज़ बन कर
उसे होठों पे
मुझे मार गिराने को
हम नासमझ है
ये मान चुपचाप हट जाएंगे रास्तों से
हमे तो शायद इमरोज़ सा आशिक़ चाहिए
पर अमृता सी हिम्मत और आबरू भी नही है।
न मिलेगा इमरोज़ न अमृता सी उदासी
न वो इश्क़ लुधियानवी
तो चलो गम्मू लिखे कुछ नई मोहब्बत
जहां तू इश्क़ भी करे
और पाप भी करे।
गलतियां भी करे
और इश्क़ भी।


Monday, 24 April 2017

शून्य

शून्य...
जहां शुरू फिर घूम घाम के वही ख़त्म
बस यही कहलाता है शून्य
जो खाली हो
निराकारी हो
सब समेटे हो
सब से छुपा 
कई रंग ढंग संजोये हो
बस यही कहलाता है शून्य।

ज़ीरो बन के नथिंगनेस
शून्य बन के शुरु से पहले ही खतम
रिश्तों में खालीपन का नाम
गणित में आगे पीछे हो के 
करे धमाल
वैज्ञानिक की खोज नई
बिना मूल्य के मूल्यवान
बस यही कहलाता है शून्य।

कैसे करे इसे परिभाषित 
जिसमे निजता का मान न हो
जिसकी भाषा से पहचान न हो
जो निर्गुण से भी बंधे नही
जो जल जितना बेरंग भी हो 
जो सूरज की लाली में लाल
गगन की नीलिमा में नील
जिसका पानी सा औचित्य जो हो
जो शुरू खत्म का भेद न दे
प्रकृति की एक पहचान जो हो
कुछ ऐसा कहलाता है शून्य।

जो परिभाषा की भाषा का मोहताज़ न हो
समझ मे आने वाला हो 
पर समझाने का प्रयास न हो
जो बंधे न इस माया में
में लिखती और समझती हूं
जो इससे भी अनिभिज्ञ सा हो
ऐसा कुछ कहलाये शून्य।

गर शून्य है मेरे रिश्तों में
मैं सतत प्रेम में रम जाऊं
तेरे मेरे होने के वजूद को
शून्यता में डूबा जाऊं
ये अंत नही शुरुआत नही
न बंधन है ना जुगत कोई
ये निजता का एहसास नही
ये तुझसे है और तुझमें है
ये एक अथाह परिश्रम है
इसका मानक एक व्यर्थ सफलता है
शून्य नही कहलाता कुछ
ये आज़ादी है
शब्दों से, बंधन से, 
कुछ होने और न होने से,
ये समागम है और विस्तारित है,
ये शब्द से परे, 
हर वस्तु से परे,
शून्य अपनी शून्यता का अधिकारी है।
जैसे भी तुम देखोगे,
जानोगे, समझोगे
ये उसी दशा- दिशा का दरबारी है।
तभी मित्र, बिना बैर 
एक से लेकर नौ तक
सभी के साथ इसकी
एक तरह की साझेदारी है।


Saturday, 11 March 2017

Coffee Couple

She: why r you leaving? Is it that? Decide what you exactly want?
He: don't be dependent on others point of view. Its ur life. Decide n move on.
She: better you say your mind. It's about life. It's about us.
He: (abruptly) no. It's not us. It was never. I can't do this.
She: again you are leaving?
He: don't blame others. U decide ur things yaar and go with that. How does it matter?
She: I don't blame you. I just ask why, how? Because it affects me n my life.

*****

She: u end so abruptly.
He:  I am scared.
She: to whom?
He: I don't know. May be, myself.
She: try me.
He: you please go.
She: (After a silence) alright.
He: ( looking at her) you will be ok.
She: you will be fearless.

****
He: BJP won.
She: m scared. Not a good news.
He: why? U expect someone else.
She: aah...this result is like love.  Whatsoever happens, I will be miserable.
As a citizen or as a lover.

****

He: what separates us?
She: we both are mindful. I think about future and you live in this moment only.

****

HE:  (aftr breakup over whatsapp) send me ur that pic.
She: (looking at phone) (smiling)
He:  ??
She: happily looking at phone screen
He: just one pic
She: (is that whatsapp makeup aftr brkup) this time...it's a big no.

His phone gets a cute posed picture of a monkey.

****

Everytime He restarts his love life with his lady; She, over a cup of coffee. Though they r coffee lovers, they ordered just one cup for two people...coffee couple.

****

He: I can't be here anymore.
She: u leaving?
He: silence
She: are you there?
He: you take care. Bye.
She: silence

Now she chose his way. She too remained silent.
Usually, He loves She. She understands He.

Thursday, 9 March 2017

यूँ ही...

बड़ा वक़्त लग गया एक बात कहने में,
न जाने क्यों, उन दिनों में कई बात हो गयी।
अब जो ये बात आ गयी सामने,
बड़ा वक़्त लग रहा एक साथ छूटने में,
न जाने क्यों, एक बेहरुपिए से मुखौटा मांग बैठी मैं।

**********

बड़ा कारवाँ लंबा है,
बड़ी देर हो रही है,
तुम कह दो तो,
पूछ लूँ,
मेरी जान जल रही है।
किश्त में जी लूँ
या दफन कर दूँ तुझे,
तेरी लाश को मरने में,
कई शाम गुज़र रही है।

Saturday, 4 March 2017

बोल, कि लब आज़ाद हैं तेरे...

दिल्ली विश्वविद्यालय में बीते दिनों डरने डराने के किस्से ने फिर से कुछ नई आवाज़ों को जनम दे दिया। ये जितना अब डराते है ये उतना बोलती है। मज़े की बात ये है कि ये पहले भी डरते थे इसलिए दबा के छुपा के रखते थे और आज भी डरते है इसलिए डराते है। गुलमेहर तो एक नाम है, न जाने कितनी आवाज़ें विश्वविद्यालय की सड़को पे कदम ताल कर रही है। न तो ये नारे वाली आवाज़ है, न धमकी वाली है और न ही गुर्रा रही है। ये बस प्यार से शांति से समझा रही है कि थोड़ा अब तुम भी सीख लो इज़्ज़त बचाना, नाक न कटवाना, सरेआम माँ बाप के साथ साथ देश की इज़्ज़त न लुटवाना। क्योंकि लड़कियां कहाँ देश की इज़्ज़त लुटवाती है? अभी पहुच ही नही पायी है वहां तक। अभी तो इनके बोलने पे ही हंगामा बरपा है। समझ नही आता, फिर डर के ये बाबू भइया लोग काहे आय बाय बकने लगते है। ये जैसे डरते है तभी,एकदम उसी वक़्त लड़की के चरित्र पे वार करने लगते है और बलात्कार करने के कार्यक्रम तक पहुच जाते है। इन स्पेशल लड़को अथवा समाज के इस वर्ग को महिलाओं से अत्यधिक प्रेम है पर कंफ्यूज है लगता है ये सब। या तो देवी समझते है या फिर दासी। खैर ये तो लंबी कहानी है इसे सलटाने में तो कहानी बन जायेगी हमारी आपकी। पर हां, इस एकजुट निडर आवाज़ों  ने ये ज़रूर कहा है कि अब ये बोलेंगी। एक साथ बोलेंगी। हक़ से बोलेंगी।
फैज़ अहमद फैज़ साहब की ये पंक्तियां कॉलेज की दिनों में ज़ुबां की तरफ से एक वर्कशॉप में सुनी थी। हिम्मत दे जाती है। ये हम सब के लिए जिनको बोलने की वाक़ई ज़रूरत है और खासकर हमारी बहनों के लिए।

Bol, ke lab azaad hai tere:
Bol, zabaan ab tak teri hai,
Tera sutwan jism hai tera –
Bol, ke jaan ab tak teri hai.

Dekh ke aahangar ki dukaan mein
Tund hai shu’le, surkh hai aahan,
Khulne-lage quflon ke dahane,
Phaila hare k zanjeer ka daaman.

Bol, ye thora waqt bahut hai,
Jism o zabaan ki maut se pahle;
Bol, ke sach zinda hai ab tak –
Bol, jo kuchh kahna hai kah-le!

बोल, कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल, कि जाँ अब तक तेरी है
देख कि आहन-गर की दुकां में
तुन्द हैं शोले, सुर्ख हैं आहन
खुलने लगे कुफ्लों के दहाने
फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल, कि थोड़ा वक्त बहुत है
ज़िस्मों ज़ुबां की मौत से पहले
बोल, कि सच ज़िन्दा है अब तक
बोल, जो कुछ कहना है कह ले

The literal and poetic transliteration is below:

Speak up, while your lips (thoughts) are (still) free
speak up, (while) your tongue is still yours
Speak, for your strong body is your own
speak, (while) your soul is still yours
Look at blacksmiths shop
hot flames makes the iron red hot
opening the (jaws of) locks
every chain opens up and begins to break
speak for this brief time is long enough
before yours body and words die
speak, for the truth still prevails
speak up, say what you must.
                                                 

Monday, 27 February 2017

आग

जब जड़ें कमज़ोर होती है,
हवाएं बेचैन हो
उसे खींच लेती है
अपने आगोश में,
वो पेड़ झुक जाता है
किसी एक ओर
अपना अस्तित्व बिखरता हुआ देखता है
एक असहाय सा,
छोटा सा झोंका भी
उसे छेड़ जाता है
मनचलो सा,
वो झुका पेड़
जो कभी उन हवाओं संग
झूम झूम सावन में
कजरी गाया करता था,
बारिश में उन संग
बिना दगा
खूब नहाया करता था,
आज झुका
खुद को बचाने की चाह में
हवाओं की बेवफाई पे भी
झूम जाता है।
वो बेदर्द बस
उसका दिल तोड़
इतरा के चल देती है
किसी मजबूत पेड़ डालों के संग,
कौन जाने
कोई क्यों पूछे
जड़े कमज़ोर हुई कैसे,
हवाओं के थपेड़ों से
मिली चोट हटी कैसे,
बस किसी ने एक राहत सुझा दी
कल कुछ आरियां दौड़ पड़ी थी
उसकी बाहों पे,
किसी का घर सजाने
किसी की लाश उठाने
वो चल पड़ा फिर
यूँ ही मर के भी किसी के काम आने,
उसे ये पता है
वहां भी वो हवाएं मिलेंगी
कभी वो उन्हें जलायेगा
कभी वो उसे बुझाएगी
जड़े खो के
अब वो बेनाम हो गया है
हवाओं की जलन ने उसे
नया नाम 'आग' दिया है।

Friday, 24 February 2017

आज उधारी ख़तम कर दी

आज सारी उधारी ख़तम कर दी
कुछ दोस्ती ख़तम कर दी
कुछ यारी ख़तम कर दी
आज सारी उधारी ख़तम कर दी।

कंगाल पड़ी बिस्तर पे
गिनने जो बैठी कमाई
तो पता चला उधारी चुकाते चुकाते
मैंने माँ की दवाई की रकम भी खत्म कर दी
मैंने जीने की एक उम्मीद
उस उम्मीद में बहने वाली वो हँसी
ख़तम कर दी
पर आज वो उधारी ख़तम कर दी।

वो उसका मुझे सताना
दिल भर के प्यार करना
मुझपे भरोसा जताना
सब उधारी का था
कुछ चंद नोटों के साथ
वो हर दिन की कहानी ख़तम कर दी।

गरीबी का रोना
रोयेंगे किससे
उधारी चुका के
बनिया के घर जाने की
रवायत ही ख़त्म कर दी।
बहुत कुछ उसके हिसाब से चलाया
जाते जाते अपनी जान सी प्यारी
एक सिफारिश सी
मेरी नयी किताब वापस कर
सारी साझेदारी ख़तम कर दी।

यारी दोस्ती शाम का उठना बैठना
सारे बहाने थे उससे मिलने के
वो हर बातें ख़तम कर दी।
ख़तम हुआ ये सब
क्योंकि हमने उधार को
दोस्ती और दोस्ती को मोहब्बत यारी समझ
उसके पैसे की चाय पी गए थे
उससे उसके ही घर में
दीवार की रंगाई का रंग बता गए थे
वो ठहरा बनिया
उसे बस काम आता है
ज़िन्दगी का हर सवाल
नफा नुक्सान में ही समझ आता है
हम ठहरे कंगाल,
उसके लिए पूरे बेकाम
ऐसे बेकार से उसने
रुसवाई भली समझी।

हम ठहरे ख़ुदग़र्ज़
हमने उधारी ख़तम कर
अपनी रुखसत की,
यारी की विदाई सही समझी।
बिना बोले सब खाली कर
उधारी ख़तम कर दी।
दिल में अपनी बात रख
उससे जुदाई शुरू कर दी।
आज हमने सारी उधारी ख़तम कर दी।

वो उन नोटों का गठ्ठर
मेरी वो किताब का बंडल
ले के जाता रहा,
मैं धड़कने संभाले
यही सोचती रही
उधारी ख़तम कर
मैंने मेरी एक कमाई ख़तम कर दी।

मैं पड़ी खाट पे
सोचती हूँ,
कैसे समझू
कैसे समझाऊं
दोस्ती मोहब्बत
क्यों मोहताज़ है
क्यों चंद लम्हे
रसूख दिखावा
सब आज़ाद है
हम गरीब तो क्या
दिल के मालिक है हुज़ूर
जितना करोगे औरों संग
उतने में तो हम
वफ़ा की एक पहचान है।
तुम करोगे क्योंकि
तुम बनिया जो ठहरे
पर हम सा वफ़ादार
मिलेगा कोई
ये तुम्हारा ज़िन्दगी भर का
खुद से पूछने वाला
अकेला एक सवाल है।
हम तो बस ज़िन्दगी की सच्चाई समझ
इसका घूँट पी के जी जायेंगे
बिना उधारी भी
माँ का इलाज करा जायेंगे
तुम कही खा गए जो धोखा
पैसा नाम इज़्ज़त लुटा
सिर्फ हम ही तुमको याद आएंगे।

फिर से एक टीस उठी मन में
हमने उधारी ख़तम कर दी
इस आदत का क्या करे
दिल में हो रही हलचल का क्या करे
हमने तो दिल की ये बीमारी ख़तम कर दी।

Tuesday, 14 February 2017

Not a valentine, though...

मैं हो जाऊं जो बावरी
पत्थर फेंक मार मत देना मुझको
क्या पता किसने इस मासूम दिल को
जन्नत के सपने दिखा
तवायफ के कोठों पे छोडा हो।
क्या पता कब किसने
मीठी बातों की चाशनी में
ज़हर मग भर उड़ेला हो।
मत हसना मेरी सूरत पे
क्या पता हँसी के भूखे होठों को
किसने चीखों की गलियों से मिलाया हो।
उसके घर की किवाड़ पे
तसल्ली का नही झूठे ख्वाब का पिटारा लटकाया हो।
क्या पता कब उससे किसी ने
सपनो की आज़ादी छीन ली हो।
माना, कोई किसी से कुछ छीन नही सकता,
पर बार बार सपनो को,
उन सपनों में छिपे ख्वाबों को,
ख्वाबों की हसरत को,
मरोड़ दबोच निचोड़ सकता है।
जब पिजड़े से प्यार हो जाए
शिकारी से इश्क़ हो जाये
तो इस बावरी को पत्थर न मारना
उसने पहले ही अपनी खुशियो का गला घोंट दिया है।
अपने मरने की खबर तक
उसकी हँसी में अपनी ख्वाहिश को दफ़न देख
उनसे होती करीबी का एहसास लेती है।
इसिलिए ये पगली
अब भी
इस शिकारी से प्यार करती है।

माना इतनी मनहूस ज़िन्दगी
पसंद नही किसी को
आखिरी में तड़कता भड़कता
कुछ जोश चाहिए।
आग लगाई है मैंने
कुछ तुम भी जलो
गीत में वीर रस से नही
खुद में वीर भाव भरो।
ऐसी कोई मासूम कली
मसल के तवायफ कोठे न भेजना कभी।
वहां वीरांगनाए मरी लाश सी मिलती है
सच मानो, वो भी कितनो की रात गुलज़ार करती है।
कभी जो हो बावरी
तो दुत्कारना नही
क्या पता मेरे आंसूं किसी की
बेपरवाही का हिसाब बता रहे हो।
मैं बावरी जो हसू गला फाड़
क्या पता वो मेरे दिल के बवंडर को छुपा रहे हो
एक नई लाश के मातम को
अपना ठिकाना बता रहे हो।
ये बावरी हर घर में बसती हो शायद
एक बार रुक के देख लेना ज़रा
आँखों ने तेरा साथ देने की कसम खायी है, कम्बख्त।

अच्छा, तुझसे जो कह दिया रुक के देखने को
तू सही गलत के हिसाब में
बहक न जाना कहीँ
क्यों कि तू दरिया का किनारा
सागर की गहराई नाप भी लिया
तो अंदर शिथिल सैलाब में
टिक न पायेगा।
ये बावरी ऐसे ही  बावरी नही
इसने कइयों की नज़रों को पीे रखा है
कइयों की जुबां गटक के
चमड़ी नयी बनायीं है।
तू बस देख
क्योंकि तेरे देखने से
उसकी रातों की अनबुझी नींद में
एक थकान टूट जायेगी।
क्या पता वो बावरी
यूँ ही मुस्का के सो जायेगी।

P S - Sorry for the inconvenience due to spelling mistake.

Tuesday, 24 January 2017

इंसानी क़ौम

जो हुस्न का हिसाब मांगते हो
सीरत नही सूरत पे नकाब मांगते हो
चश्मा पहना के सही गलत का
अपने होने पे खिताब मांगते हो

पैसों से तौल के दोस्ती
कपड़ों के टैग से इंसान जानते हो
पहचानते तो क्या हो
बस सरनेम से रिश्ता जोड़
दुनिया से एक नाम मांगते हो

सफलता विफलता दुःख और ख़ुशी
पंडित भगवा हरा कोई काज़ी
दरिया में डूब मछली से चारा
और मगर से रहने का स्थान मांगते हो

मैं खुश तो तुम ख़ुशी की तारीख मांगते हो
तारिख जो मिली तो
उसके टिकने की तासीर चाहते हो
मेरे रोने में छुपा दर्द
या मेरे जिस्म में चुभन
तुम हर बात का कई हिसाब मांगते हो

और जब मैं देने आऊं जो कभी
अपने होने का पता
आने की जुगत
जाने की खता
गर्दिश में मेरे होश कही
मेरे सपनो के खोने की वजह
मेरा वो यूँ ही
एक मोड़ पे बैठ
किसी रास्ते को ताकने का सबब
जो आऊं बताने कभी
अपने इश्क़ का मज़हब
तो क्यों उनपे
दुनयावी किताबों का बोझ डालते हो
बचपन की कहानी के राजा
राजा की मजबूरी का बयान बाटते हो
क्यों ज़िन्दगी को मजबूरी
और मजबूरी को जीने का सबब
रिश्तों को ज़रूरत
और ज़रूरत को हकीकत
घर को अनाजों और सपनो की गठरी
बचपन को सपना
और सपनों को उडान मानते हो

जब मैं कहने आऊँ तुमसे जो
कि बिना डर के जीने दो मुझे
क्यों डरा के अपने क़ौम में
एक और बुझ चुका चिराग चाहते हो

Friday, 20 January 2017

हर दिन तोड़ नाचती
रात झूम अँसुअन संग जाती
नहीं पता ये रुदन कैसा
क्यों पल भर में मैं मुस्काती
उसके संग है जीवन मेरा
बिन उसके कुछ बूझ न पाती
क्या जानू कैसी होती रातें
उसके संग झर झर यूँ ही जाती
बिन उसके न बीते जब वो
उसका साथ पा फिर सो जाती
रख कांधे पे सिरहाना बना
अपनी दुनिया में मैं खो जाती
ख्याल बुरा है ज़िन्दगी सा
जब सोचू उसका बिछोह
उस के मन में प्यार रहे जो
यही सोच मैं चुप हो जाती
किस्से लड़ के पाऊं तुझको
ऐसे में मैं रो ही पाती
लड़ना उनसे
जिससे मैंने दुनिया जानी
लड़ के है अपनी दुनिया पानी
इस साथ दूर के चक्कर में
मैं तुझे पकड़
सीने से जकड
फिर हाथ पकड़
उंगली को लिपट
बालों के बीच मांग बना
फिर उनको मिटा
आँखों के भूरे रंग में चित्र बना
माथे के तिल में मिल जाती
नाखूनों के सफ़ेद दाग में
गुलाबी रंग सा मैं छप जाती
बस ऐसे ही तुझे याद कर
दिन ढलते मैं कुछ लिख जाती
ऐसी सुबह उठूं मैं हर दिन
हर दिन ऐसी शाम जो लाती।

ये बेनाम बेपता है जिनका रास्ता मंज़िल मुझ से चल के आपकी जुबां से आपके ख्यालों ख्वाबों तक पहुच रहा है। इनको चाहे जो नाम दे, इनकी खूबसूरती अपने किसी भी नाम से कही ऊपर है इसलिए मैंने कोई शीर्षक नही दिया। फिर भी, आपको कुछ सूझे तो ज़रूर बताइयेगा।


हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...