हर दिन तोड़ नाचती
रात झूम अँसुअन संग जाती
नहीं पता ये रुदन कैसा
क्यों पल भर में मैं मुस्काती
उसके संग है जीवन मेरा
बिन उसके कुछ बूझ न पाती
क्या जानू कैसी होती रातें
उसके संग झर झर यूँ ही जाती
बिन उसके न बीते जब वो
उसका साथ पा फिर सो जाती
रख कांधे पे सिरहाना बना
अपनी दुनिया में मैं खो जाती
ख्याल बुरा है ज़िन्दगी सा
जब सोचू उसका बिछोह
उस के मन में प्यार रहे जो
यही सोच मैं चुप हो जाती
किस्से लड़ के पाऊं तुझको
ऐसे में मैं रो ही पाती
लड़ना उनसे
जिससे मैंने दुनिया जानी
लड़ के है अपनी दुनिया पानी
इस साथ दूर के चक्कर में
मैं तुझे पकड़
सीने से जकड
फिर हाथ पकड़
उंगली को लिपट
बालों के बीच मांग बना
फिर उनको मिटा
आँखों के भूरे रंग में चित्र बना
माथे के तिल में मिल जाती
नाखूनों के सफ़ेद दाग में
गुलाबी रंग सा मैं छप जाती
बस ऐसे ही तुझे याद कर
दिन ढलते मैं कुछ लिख जाती
ऐसी सुबह उठूं मैं हर दिन
हर दिन ऐसी शाम जो लाती।

ये बेनाम बेपता है जिनका रास्ता मंज़िल मुझ से चल के आपकी जुबां से आपके ख्यालों ख्वाबों तक पहुच रहा है। इनको चाहे जो नाम दे, इनकी खूबसूरती अपने किसी भी नाम से कही ऊपर है इसलिए मैंने कोई शीर्षक नही दिया। फिर भी, आपको कुछ सूझे तो ज़रूर बताइयेगा।


Comments

बहुत ही अच्छी रचना की प्रस्तुति। आपको भी मकर संक्राति की बहुत बहुत बधाईयां। यह रचना बहुत गहन भावों से सजी हुई है। मुझे बहुत पसंद आई।
Unknown said…
Sahiii..bhot acha likha hai ji..keep it up..����
Unknown said…
Really mindblowing and thought provoking lines...well structured and nicely written.
Unknown said…
बहुत ही सुंदर कोशिश है। बहुत बहुत बधाई।।
Unknown said…
बहुत ही सुंदर कोशिश है। बहुत बहुत बधाई।।
aap sab ka bahut dhanyawaad

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