Monday, 24 April 2017

शून्य

शून्य...
जहां शुरू फिर घूम घाम के वही ख़त्म
बस यही कहलाता है शून्य
जो खाली हो
निराकारी हो
सब समेटे हो
सब से छुपा 
कई रंग ढंग संजोये हो
बस यही कहलाता है शून्य।

ज़ीरो बन के नथिंगनेस
शून्य बन के शुरु से पहले ही खतम
रिश्तों में खालीपन का नाम
गणित में आगे पीछे हो के 
करे धमाल
वैज्ञानिक की खोज नई
बिना मूल्य के मूल्यवान
बस यही कहलाता है शून्य।

कैसे करे इसे परिभाषित 
जिसमे निजता का मान न हो
जिसकी भाषा से पहचान न हो
जो निर्गुण से भी बंधे नही
जो जल जितना बेरंग भी हो 
जो सूरज की लाली में लाल
गगन की नीलिमा में नील
जिसका पानी सा औचित्य जो हो
जो शुरू खत्म का भेद न दे
प्रकृति की एक पहचान जो हो
कुछ ऐसा कहलाता है शून्य।

जो परिभाषा की भाषा का मोहताज़ न हो
समझ मे आने वाला हो 
पर समझाने का प्रयास न हो
जो बंधे न इस माया में
में लिखती और समझती हूं
जो इससे भी अनिभिज्ञ सा हो
ऐसा कुछ कहलाये शून्य।

गर शून्य है मेरे रिश्तों में
मैं सतत प्रेम में रम जाऊं
तेरे मेरे होने के वजूद को
शून्यता में डूबा जाऊं
ये अंत नही शुरुआत नही
न बंधन है ना जुगत कोई
ये निजता का एहसास नही
ये तुझसे है और तुझमें है
ये एक अथाह परिश्रम है
इसका मानक एक व्यर्थ सफलता है
शून्य नही कहलाता कुछ
ये आज़ादी है
शब्दों से, बंधन से, 
कुछ होने और न होने से,
ये समागम है और विस्तारित है,
ये शब्द से परे, 
हर वस्तु से परे,
शून्य अपनी शून्यता का अधिकारी है।
जैसे भी तुम देखोगे,
जानोगे, समझोगे
ये उसी दशा- दिशा का दरबारी है।
तभी मित्र, बिना बैर 
एक से लेकर नौ तक
सभी के साथ इसकी
एक तरह की साझेदारी है।


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