Saturday, 27 July 2024

हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है”

अच्छे एहसास की कमतरी हो

या दिल दुखाने की बात

दुनिया से थक कर उदासी हो 

मेहनत की थकान उदासी नहीं देती 

या हो किसी से मायूसी 

जब सबका साथ 

एक गठबंधन सा हो 

या जब ना हो अपनों से अपनेपन से बात 

अकेलापन काटने को आये 

तब एक आवाज़ अंदर से ख़ुद को कहती है 

हमको घर जाना है 

आज भी वही हुआ 

ज्ञान और विज्ञान के तर्क से 

ज़िंदगी की मौजूदगी को मरते देख 

वही बात कौंध उठी 

घर जाना है! 

हमको हमारे घर जाना है! 

क्यों जाना है? घर 

वो जगह जहां मेरी जगह है 

मेरी बात है 

सोच मेरी है 

सही ग़लत के परे 

सही ग़लत का भेद बताती 

बुराई से बचाती 

मेरी महफ़ूज़ ज़िंदगी साँस लेती है 

क्या हो जो घर में भी 

भीड़ हो 

सोच की ज़बान की 

लोगों की ज्ञान की 

क्या वर्जीनिया वुल्फ़ इसलिए ही अपने कमरे की बात करती हैं? 

दलील शेक्सपीयर के बराबर लिखने की हो 

या सांकेतिक भाषा में कई बातें कह जाने की 

पर बात अपने कमरे की है 

वर्जीनिया से फिर मुलाक़ात करूँगी 

वजह जानने की क्यों चाहती हैं वो अपना कमरा? 

क्या हम दोनों अपनी जगह चाह रहे हैं? 

जगह क्या क्या दे सकता है? 

यकीनन, अपना बंद कमरा भी सोचने की आज़ादी और ज़िंदगी में सांस दे सकता है! 

Thursday, 30 May 2024

हारना मुझसे, बस इतना ही चाहती हूँ

 इस दुनिया से लड़ना मुश्किल नहीं मेरे लिए 

पर तुझसे हार जाती हूँ। 

किसी से डर नहीं लगता 

तेरे ग़ुस्से से ख़ौफ़ खाती हूँ।

सच का दमन थामा था

झूठ से आसान जानने के बाद ही 

तेरी नाराज़गी के डर से

झूठ बोल जाती हूँ।

सब्र बहुत है मुझमें 

इनकार ना कर पाओगे इससे 

तुमसे मोहब्बत चाहने में

अक्सर लालची हो जाती हूँ ।

तेरे इश्क़ में सब मंज़ूर 

तेरी आँखों में झूठ सही 

ख़ुद के लिए शिकवा नफ़रत सह ना पाती हूँ।

कहते हैं इश्क़ में दीवाना बनना आसान 

मोहब्बत में त्यागना एक हुनर 

मैं तुमसे सब माँग के सब खा के 

तुमको ख़ुद में समा लेना चाहती हूँ। 

तुम घर में आते ही मुझे अपनी बाहों में समेटे 

आँखें सिर्फ़ मुझ पर टिकाये 

नज़र भर बस मेरी नज़र हो 

हर हर्फ़ मेरा ज़िक्र हो 

मैं तुमसे ख़ुद को सराबोर हो

आख़िरी साँस तुममें ही लेना चाहती हूँ।

मैं एक स्वार्थी प्रेमिका बन 

तुम्हारी मुस्कान पर भी सिर्फ़ अपना ज़िक्र चाहती हूँ। 

मैं तुम्हें बताये बग़ैर तुमसे इश्क़ कर 

ख़ुद को गुमराह कर देना चाहती हूँ। 

हर दिन जीत जाओ तुम

हारना मुझसे, बस इतना ही चाहती हूँ। 





Friday, 23 February 2024

खंडहर मकान

 एक खंडहर मकान 

जिसमे ईंट पत्थर सीमेंट से बना ढाँचा है

रंगाई पोताई भी हुई है रंगों से 

बग़ैर इंसानों के 

उस आशियाने में 

जंगली झाड़ियों, कीड़ों और अंधेरों ने क़ब्ज़ा कर लिया है 

ऐसा ही हो जाता है 

जो कहता है कि 

मेरे अपने मेरे साथ नहीं 

कोई उन्नीस साल की लड़की 

दूरस्थ किसी के बहकावे में,

कोई नौजवान किसी के इश्क़ में, 

जब उसका साथ ना मिले 

तो खंडहर हो जाता है 

जब एक माँ अपनी बिटिया की जान गवाँ बैठती है 

बाप समाज में रीढ़ सीधी किए 

मुस्कुराता चलने का आडंबर करता है 

अंदर से खंडहर उसी मकान की तरह, 

जब साथी का साथ 

किसी और के साथ 

उसे महफ़ूज़ लगे,

अपना घर के ताले ख़ुद बू ख़ुद खुल जाते हैं 

सब घुसने लगते हैं

खंडहर में,

वीरान जंगल से जानवर भी रुठ जाते हैं 

वो ना रुठते तो शायद जंगल ज़िंदा हो जाता फिर से

शायद उनके जाने से ही वीरान हो गया वो

खंडहर उस मकान जैसा,

उसने अपनी अम्मा की बीमारी में 

खूब मन लगाया 

ख़िदमत की 

अम्मा ना रही 

उसके दिल का एक कोना 

खंडहर हो गया 

अपनी ज़िम्मेदारी और मोहब्बत की इबादत में,

उसने अपना भाई खोया 

रास्ते में पड़े हर मंदिर 

और उसमें बसाये गये 

हर भगवान नुमा मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर, 

कुछ बरसों के लिए वो खंडहर हो गई थी, 

अम्मा को जाना था तब 

बिटिया का साथ इतना ही था 

उस दूरस्थ नये प्यार जैसे बेजान प्यार का ना मिलना तय था 

जंगल से जानवरों को नये रास्ते जाना ही था 

साथी को तत्कालीन ख़ुशी 

किसी और बाहों में मिलना ही था 

और उसे अपने भाई का साथ 

दूसरे भाइयों में पाना था 

जिसने बचपन में अपने पराये का सबब

समाज से नहीं अपनी माँ से सीखा था 

पर देखिए ना 

ये सब कहते कहते ही

मेरी आँखें भर आयी 

उसकी भी जिसने बिटिया खोयी 

जिसने अम्मा को याद किया 

जिसका प्यार ना मिला 

और वो जो एक अदद 

घर से मकान और फिर खंडहर हो गये 

बेशक ये खंडहर फिर से मकान 

और मकान से ख़ुशहाल घर 

रंगों से महक उठेगा।

अंधेरों से मुस्कुरा के मिलिए 

इंसानियत रोशनी है 

जो मोहब्बत सरीखी 

ख़ुदा बराबर मीठी मिश्री है। 


Thursday, 15 February 2024

दबे छिपे ख़ाब

 दबे छिपे ख़्वाब 

जो मैं जानती भी नहीं 

कहीं छिपे हैं 

बेनाम बेपता बेतरतीबी से 

आँखों से इशारे करने थे 

ज़ोर की सीटी बजानी है 

बांसुरी बजाना था ऐसे कि जिन्हें सुन के मेरे आंसू ना थमे थे उस दिन लखनऊ में एक शाम में 

ढोलक पर एक बढ़िया सुर के साथ ताल 

मोहब्बत इश्क़ में सराबोर हो जाने का 

उसके साथ बेझिझक कभी भी मिल पाने का 

अपने ही अन्दर अपनी आँखों से चक्कर काट के आने का

चाँद के चाँद होने पर उनके अंधेरे हिस्से में झांकने का

दबे  ख़्वाब इतने दबे छिपे हैं कि

लिखने में भी छिपे हैं 

लिखा वो जो तुमसे कह सकती थी 

पता ही नहीं कि ख़्वाब हैं क्या मेरे? 

मेरे ही है या किसी और के? 

उस पहाड़ी पर जाना है जहां मैं सिर्फ़ अकेली दिखती हूँ ख़ुद को 

उसका हाथ थामना है जो बरसों से उस पानी के किनारे मेरे साथ खड़ा है 

उस हवा में साँस लेना है जिसमें मैं तेज़ रफ़्तार से गुज़र जाती हूँ 

बग़ैर साँस को जाने बग़ैर थामे

पानी में डूबना है 

घुटन को जान कर सांस लेना है फिर से

ये सब अभी के ख़्वाब हैं 

जब मैं तुमसे कह रही हूँ 

ये भी नहीं जानती 

ऐन ये भी नहीं जानती 

कि ये जो छिपे दबे ख़्वाब है 

ये हैं या नहीं?

मैं नहीं जानती 

इसलिए ही शायद ये मेरे ख़्वाब है 

तुम ऐसे क्यों देख रहे हो? 

तुम अपने भी जोड़ोगे क्या इसमें?

तुम्हारे दबे छिपे ख़्वाब!

क्या तुम जानते वो उन्हें

Monday, 1 January 2024

पढ़ना और इंसान बन जाना

 मज़हबों में बाँट 

फ़िरक़ापरस्त हर कदम नफ़रत बोते रहे 

किसी को आत्मा से लूटते रहे 

किसी को ख़ौफ़ज़दा करते रहे 

लुटे वो

खून बहाया और बहे उनके 

दागदार माँओं की कोख होती रही 

सड़क जो मिट्टी को कुचल पक्की हुई थी 

सुर्ख़ लाल हो  

छन के मिट्टी तक पहुँची 

ये देख ज़र्रा बोल उठा

बोलो अमृता से कि नज़्म पढ़ें 

राहुल वोल्गा से गंगा फिर लिखें 

पाश भी गुर्रा पड़ें अब 

नागार्जुन बाबा का लड़कपन छलके अब 

पड़ोस मुल्क जो मज़हब की पैदाइश है 

वहाँ से भी आवाज़ बुलंद करो 

खून तो सफ़ेद हैं इनके 

डरे हुए के खून सुर्ख़ क्या?

ये बीमार मन ज़द है सिर्फ़ 

ज़हरीला पानी उगलता है 

तुम बेहोश जो जाना 

इसे पीना नहीं पर,

धर्म नहीं है ये उसका 

बाज़ारू रवायत है ये

ये पत्ते गिरते नहीं शाख़ों से 

नये रोज़ फिर से उगने को 

ये काट देते हैं 

और दोज़ख़ के डर से 

ख़ौफ़ भर, ज़िंदा रखते हैं 

मारना इनकी फ़ितरत नहीं 

ये ज़िंदा लाशों का एक हुजूम बना रहे हैं 

मैं और तुम सिपाही बनने को बेचैन 

हथियार उठाये हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई में 

बँटे अंगारे बने बैठे हैं 

उसी दिन रात ने सूरज को एक अंगारा दिखा 

सुबह कोयला थमाया था 

उसने सूरज को कालिख़ का डर बताया था 

तुमने कहा था उस दिन 

“मैं देश के लिए जलने और मरने को तैयार हूँ”

अंगारा हो या कोयला 

ये हिसाब करना भूल गए तुम 

और वो रैली ले के निकल गये हैं 

नये शहर नये गाँव नये घर। 

तुम कालिख बन जाना 

सूरज ना बने तो,

शर्मिंदा हो जाना 

अगर ना बोल पड़े तो,

दिनकर ना आए 

पाश ना गुर्राये 

तो इतिहास पढ़ना ख़ुद से 

और इंसान बन जाना। 

बस इंसान बन जाना। 




Sunday, 3 December 2023

निबंध प्रतियोगिता

 तुम्हारा नाम क्या है? 

अमरमणि 

और तुम? 

हम गीता 

पूरा नाम बताओ 

हाँ, गीता राधा 

राधा हमारी अम्मा बुलाये और गीता पिता जी 

हम अमरमणि यादव 

अच्छा जी 

हम सोचे त्रिपाठी  

(अट्टहास)

वैसे तो फिर गीता राधा कुर्मी 

अच्छा अच्छा 

कौन गाँव से हो ? 

कुर्मियाने का पुरवा 

वही ना, चमरउटी के पीछे 

और तुम अमरमणि त्रिपाठी? 

हम ठकुराने के बग़ल वाले में 

हो तो अहीर ना यार तुम! 

हाँ हाँ जी

सिंह भी लगाते हो क्या? 

नहीं नहीं हमारे चाचा लगाते हैं 

इलेक्शन लड़ोगे का? 

नहीं नहीं, वो मुलायम के टाइम से लगा रहे हैं 

और तुम सब 

हम सिर्फ़ यादव 

तो अमरमणि सिर्फ़ यादव जी…

(अंदर बेल की तेज आवाज़ आयी) 

गुरु जी तेज़ आवाज़ में 

अरे बच्चों को हस्ताक्षर करा के जल्दी भेजिए अंदर

लेट हो रहा है 

सामने ब्लैकबोर्ड पर लिखा है 

संविधान दिवस के उपलक्ष्य पर सामाजिक समानता पर निबंध प्रतियोगिता”

गीता कुमारी -  प्रेजेंट सर 

अमरमणि यादव - प्रेजेंट सर

सिद्धार्थ पासी - प्रेजेंट सर

शिवनारायण त्रिवेदी - प्रेजेंट सर

…….


वियोग योग का साथी

 एक रात 

फिर कई रात 

नई दिल्ली में 

रायसीना के चौड़े गलियारे से पहले 

वो आगे आगे चलता 

वो उसके पीछे 

कदमों के बेनिशान निशान पर 

कदम दर कदम 

चलती जाती

फिर कई रातें 

वो पीछे चलते चलते 

दोस्त यारों की तरह 

हंसते लड़ते झगड़ते इठलाते 

साथ चलने लगे 

उसे फक्र था 

एक ही छल्ले में 

दोनों की चाभी का होना 

मोमबत्ती के उजाले में 

परछाई संग रात बिता देना 

कभी ग़ुस्से और नख़रों में भूखे सो जाना 

यक़ायक हर रोज़ तकरार ने 

ऐसी जगह बनाई 

की वो परछाई बन गई 

मोमबत्ती के उजाले हट गये 

अंधेरे में भी वो दूर दूर सो गये 

क्या वो दूर दूर हो गये ?

शहर बदले मकान बदले 

चाभी के छल्ले और चाभियाँ अलग हो गई 

मक़ाम एक हैं 

रास्ते भी एक हैं 

पर साथ चलने में 

इतनी गुस्ताखी क्यों है 

तल्ख़ी और जज़्बात क्यों है? 

झूठ सच का इतना पैमाना क्यों है? 

ये इतने सवाल क्यों हैं? 

फिर एक दिन सवाल भी बंद हो गये 

थकने की आवाज़ काँच के टूटने जैसे होती होगी 

चुभती रहती है हर ठीक से मिटे ना तो

वो चाहिए तो पूरा वरना नहीं 

इसका भरम था उसे

आज उसके संग घर बसा रही है

पर वो ना मिला 

ये कैसा साथ है 

वो है तो पूरा घर बार भी है 

पर वो जिससे इश्क़ में खो गई थी वो

दोस्त पा मचल गई थी जो 

अब अच्छे दोस्त का टैग लगा 

अकेले ही शाम गुजरा करती है 

रात स्याह हो या पूर्णिमा 

काली ही जाया करती हैं

सब कहते हैं 

दुख बड़ा है आपकी कविता में 

भरम टूटे तो क़िस्से जन्म लेते हैं 

मुस्कुराहट तो गलियारों के कोने में 

सुगबुगाती ही मिलती हैं 

फिर या तो हंसी खेलती हैं 

घुँघरू पहन 

या फिर नृत्य वियोग रस में तांडव करता है 

भ्रम टूटे तो 

भरम की नहीं वास्तविकता की ही परीक्षा होती है। 

रात अमावस हो या पूर्णिमा 

चाँद की ही नपाई होती है। 







Sunday, 5 November 2023

तुम्हारी बातें बिना तुम्हारे

 वो मेरे बिना रह सकता है 

अब ये सवाल नहीं रहा 

वो रह के दिखा रहा है 

जहां मैं ना होऊँ

वहाँ अपनी दुनिया बसा रहा है

एक सुई सी चुभे 

जिसमें टन का भार भी हो

ऐसा दर्द होता है 

साँसें लेने में 

दिल डूब जाता है 

मैं फिर उसी कमरे के कोने में 

बैठ जाती हूँ

उस रात तो उसने अपने पास बुला लिया था 

पर अब नहीं बुलाता 

प्यार ऐसे ही अचानक नहीं 

धीमे धीमे ख़त्म हो जाता है 

मैंने ख़ुद को सहेज लिया है

चोट लगने से डरती जो हूँ 

दिन में हंसती हूँ खुल के

रातों में ख़ुद के साथ की 

बेईमानी का बोझ आंसू से धो देती हूँ 

और ग़द्दार आँखें 

अगले दिन 

मुँह सूजा सबको बताती फिरती हैं 

कि कल रात ये भीगी थी 

बवंडर में बारिश में जकड़ी थी 

इंतज़ार यूँ ही नहीं 

धीरे धीरे आदत बन जाता है । 

उसका प्यार ख़त्म हुआ 

मेरा इंतज़ार बढ़ गया। 



Monday, 25 September 2023

शब्दों का जाल

 ख़ुद के शब्द 

बेवजह बस बात करने की 

रवायत का हिस्सा जैसे 

ना मतलब कोई उनका 

कहीं से आयीं थी मुझमें 

और किसी के सामने 

निकलने को बेताब 

वही घूम घूम के 

बस वही वहीं 

अच्छा! 

लहरें भी तो घूम घूम के वहीं आती है 

तो क्या बेमतलब हो गयीं वो 

शब्दों का पूरा समंदर है 

और उनका निकलना 

लहरों की संगत सा है 

रूठ के शब्द चले गये 

गले से कहीं दूर 

नीचे उतर गये 

उस दिन बिना मौन 

किसी से बात ना हुई 

क्यों क्या हुआ? 

सवाल का जवाब देने भी ना आये

अहम भी है इनमें 

अच्छा भई! 

कितना बोलूँ 

कि इन शब्दों के निकलने से 

मुझे मैं बेईमान झूठी ना लगूँ 

मछलियाँ है क्या अंदर 

जिनको ऑक्सीजन चाहिए? 

केकड़े और फंगस भी? 

शब्द समंदर की लहर है भी क्या? 

या उसी का एक नया जाल? 

जिसमें मैं फिर से फस गई? 

मछली है कौन? 

कहीं मैं तो…. ? 

मैं तो समंदर…..





Saturday, 29 July 2023

वो तुम्हारे हैं

 उसने दूरी बनायी 

और दिल सबसे दूर हो गया 

वो लोग हैं 

जो मेरे बिना अकेले से थे 

उनसे दूर 

किसी के चले जाने का ग़म सींच रही थी 

किसी के अलगाव को 

ख़ुद नापसंद बन सबसे अलग हो रही थी 

वो कहने लगे 

कि काम होगा उसे आजकल

फ़ोन नहीं आता उसका 

वो बिस्तर में सिर घुसाये 

ना छत देखती ना दीवार 

मुँह पर परछाई बने फूलों को ताका करती 

क्या दिन क्या रात 

सब यूँही बिस्तर में गड्ढा बनाते 

हड्डी और मांस में लिपटे 

बंद डब्बा दिमाग़! 

सब कहने लगे कि

काम बहुत है उसको 

इसलिए अब फ़ोन भी नहीं उठाती सबका 

घंटियाँ बजती 

वो खुली आंखों से देख 

तकिया में घुसा आँख को अंधेरे में सुला देती 

पर ये कोशिश ही रह जाती 

सब कहने लगे कि

चेहरा काला पड़ने लगा है 

आँखों के नीचे गड्ढा होने लगा है 

काम बहुत ज़्यादा है उसे 

एक दिन उजाले में उसने बात की थी उनसे 

वो फिर धड़कनों के रुकने 

मौत के आ जाने 

और ख़ुद की लाश बन जाने के इंतज़ार में 

बिस्तर पर थके शरीर को साँस लेना सीखा रही थी। 

घंटी बजी और फिर कहा उन्होंने 

काम कर रही होगी अभी। 


बात

 जब दो लोग एक दूसरे से कहने लगे 

 बात करने को कुछ ना बचा 

क्या बात करें! 

क्यों बात बात बात करनी है 

तो सच में कहने को कुछ ना बचा उनके बीच

पर किसने कह दिया उन्हें 

बातें सिर्फ़ ज़ुबान करती है

शब्दों से ही होती है बातें 

भाई, सिले होंठ दास्तान बयान कर जाते हैं 

आँखें करती हैं बातें

भौंहों का सिकुड़ना, हाथों का छूना

साथ होने का सुकून 

बहुत सी बात करता है 

फिर सवाल आया ग़ुस्से में 

पर भई क्या बात करनी है? 

साँसों में पिरो लेना है 

इतना कि

मेरी धड़कन अपना पता दे जाए 

इस हद तक रहना है तुममें 

और तुमको ख़ुद में 

बात तो मुझे भी नहीं पता 

क्या करनी होती है! 

ना घर की ना दुकान की 

ना ज़मीन की ना ईमान की 

ना पड़ोस की ना असमान की 

ना नज़रों की ना नज़ारों की 

या दुनिया की ना दावेदारों की 

इस बार झल्लाहट आयी एकदम तेज़ हवा सी 

कि भई समझा तो दो 

कि क्या बात करनी है? 

क्या बात करना चाहती हो? 

जो हर वक़्त यही रट लगाये रहते हो? 

अंदर कुछ ज़ोर ज़ोर से कह रहा था 

जवाब में शायद 

बाहर सन्नाटा था 

कि जैसे कोई बात ही ना हो! 





हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...