दुनिया में तमाम उलझने
बगावत सितम के किस्से और ज़ुल्म हैं
मेरे अपने इश्क़ और इंतज़ार की नज़्मों ने जगह रोक रखी है
हैरान हूँ अपनी दीद पर
जो मोहब्बत को मसला
और तमाम मसलों की ताबीर मानती है।
मैंने उससे कहा
आज कुछ ख़ास नहीं
उसने कहा
मैं साथ नहीं?
बात गहरी थी
जब वो ना था तो
उसका साथ भी एक दुआ सी लगे
अब जब साथ है तो
ख़ास की तलाश है मुझे।
मुझे चाहिए कुछ नया
हर दिन में ऊब की बू सी लगे
कैसे समझूँ
ये इश्क़ है
जब इश्क़ करने में
वो ख़ुद भी लगे ।
इस कश्मकश में
बिताया छठवाँ साल का आख़िरी दिन
ना रो सकी ना हसने का दिल करे
रात अब भी अकेली है वैसे ही
बस वो साथ है
यही सुकून लगे।
अब ना कहती हूँ कि
मोहब्बत है मुझे
ना अब मैं इश्कबाज़
ना ही इंतज़ार में बेजार लगे।
मरी हुई हूँ
सबको ज़िंदा लगती हूँ।
ना अब हँसी
ना इंतज़ार कहीं
अब तो ना मरने का चाव बचा
ना जीने की उलझन
बस बीत रही हूँ
और ये देसी सबको समझदार लगे।
****
अरे सुनो! उसकी बदनामी का डर है मुझे
ये मेरा इश्क़, मेरा इंतज़ार, मेरी ऊब, मेरा हँसना
सब मेरा है।
वो तो अब प्यार करने लगा है।
“हमको घर जाना है”
अच्छे एहसास की कमतरी हो
या दिल दुखाने की बात
दुनिया से थक कर उदासी हो
मेहनत की थकान उदासी नहीं देती
या हो किसी से मायूसी
जब सबका साथ
एक गठबंधन सा हो
या जब ना हो अपनों से अपनेपन से बात
अकेलापन काटने को आये
तब एक आवाज़ अंदर से ख़ुद को कहती है
हमको घर जाना है
आज भी वही हुआ
ज्ञान और विज्ञान के तर्क से
ज़िंदगी की मौजूदगी को मरते देख
वही बात कौंध उठी
घर जाना है!
हमको हमारे घर जाना है!
क्यों जाना है? घर
वो जगह जहां मेरी जगह है
मेरी बात है
सोच मेरी है
सही ग़लत के परे
सही ग़लत का भेद बताती
बुराई से बचाती
मेरी महफ़ूज़ ज़िंदगी साँस लेती है
क्या हो जो घर में भी
भीड़ हो
सोच की ज़बान की
लोगों की ज्ञान की
क्या वर्जीनिया वुल्फ़ इसलिए ही अपने कमरे की बात करती हैं?
दलील शेक्सपीयर के बराबर लिखने की हो
या सांकेतिक भाषा में कई बातें कह जाने की
पर बात अपने कमरे की है
वर्जीनिया से फिर मुलाक़ात करूँगी
वजह जानने की क्यों चाहती हैं वो अपना कमरा?
क्या हम दोनों अपनी जगह चाह रहे हैं?
जगह क्या क्या दे सकता है?
यकीनन, अपना बंद कमरा भी सोचने की आज़ादी और ज़िंदगी में सांस दे सकता है!
इस दुनिया से लड़ना मुश्किल नहीं मेरे लिए
पर तुझसे हार जाती हूँ।
किसी से डर नहीं लगता
तेरे ग़ुस्से से ख़ौफ़ खाती हूँ।
सच का दमन थामा था
झूठ से आसान जानने के बाद ही
तेरी नाराज़गी के डर से
झूठ बोल जाती हूँ।
सब्र बहुत है मुझमें
इनकार ना कर पाओगे इससे
तुमसे मोहब्बत चाहने में
अक्सर लालची हो जाती हूँ ।
तेरे इश्क़ में सब मंज़ूर
तेरी आँखों में झूठ सही
ख़ुद के लिए शिकवा नफ़रत सह ना पाती हूँ।
कहते हैं इश्क़ में दीवाना बनना आसान
मोहब्बत में त्यागना एक हुनर
मैं तुमसे सब माँग के सब खा के
तुमको ख़ुद में समा लेना चाहती हूँ।
तुम घर में आते ही मुझे अपनी बाहों में समेटे
आँखें सिर्फ़ मुझ पर टिकाये
नज़र भर बस मेरी नज़र हो
हर हर्फ़ मेरा ज़िक्र हो
मैं तुमसे ख़ुद को सराबोर हो
आख़िरी साँस तुममें ही लेना चाहती हूँ।
मैं एक स्वार्थी प्रेमिका बन
तुम्हारी मुस्कान पर भी सिर्फ़ अपना ज़िक्र चाहती हूँ।
मैं तुम्हें बताये बग़ैर तुमसे इश्क़ कर
ख़ुद को गुमराह कर देना चाहती हूँ।
हर दिन जीत जाओ तुम
हारना मुझसे, बस इतना ही चाहती हूँ।
एक खंडहर मकान
जिसमे ईंट पत्थर सीमेंट से बना ढाँचा है
रंगाई पोताई भी हुई है रंगों से
बग़ैर इंसानों के
उस आशियाने में
जंगली झाड़ियों, कीड़ों और अंधेरों ने क़ब्ज़ा कर लिया है
ऐसा ही हो जाता है
जो कहता है कि
मेरे अपने मेरे साथ नहीं
कोई उन्नीस साल की लड़की
दूरस्थ किसी के बहकावे में,
कोई नौजवान किसी के इश्क़ में,
जब उसका साथ ना मिले
तो खंडहर हो जाता है
जब एक माँ अपनी बिटिया की जान गवाँ बैठती है
बाप समाज में रीढ़ सीधी किए
मुस्कुराता चलने का आडंबर करता है
अंदर से खंडहर उसी मकान की तरह,
जब साथी का साथ
किसी और के साथ
उसे महफ़ूज़ लगे,
अपना घर के ताले ख़ुद बू ख़ुद खुल जाते हैं
सब घुसने लगते हैं
खंडहर में,
वीरान जंगल से जानवर भी रुठ जाते हैं
वो ना रुठते तो शायद जंगल ज़िंदा हो जाता फिर से
शायद उनके जाने से ही वीरान हो गया वो
खंडहर उस मकान जैसा,
उसने अपनी अम्मा की बीमारी में
खूब मन लगाया
ख़िदमत की
अम्मा ना रही
उसके दिल का एक कोना
खंडहर हो गया
अपनी ज़िम्मेदारी और मोहब्बत की इबादत में,
उसने अपना भाई खोया
रास्ते में पड़े हर मंदिर
और उसमें बसाये गये
हर भगवान नुमा मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर,
कुछ बरसों के लिए वो खंडहर हो गई थी,
अम्मा को जाना था तब
बिटिया का साथ इतना ही था
उस दूरस्थ नये प्यार जैसे बेजान प्यार का ना मिलना तय था
जंगल से जानवरों को नये रास्ते जाना ही था
साथी को तत्कालीन ख़ुशी
किसी और बाहों में मिलना ही था
और उसे अपने भाई का साथ
दूसरे भाइयों में पाना था
जिसने बचपन में अपने पराये का सबब
समाज से नहीं अपनी माँ से सीखा था
पर देखिए ना
ये सब कहते कहते ही
मेरी आँखें भर आयी
उसकी भी जिसने बिटिया खोयी
जिसने अम्मा को याद किया
जिसका प्यार ना मिला
और वो जो एक अदद
घर से मकान और फिर खंडहर हो गये
बेशक ये खंडहर फिर से मकान
और मकान से ख़ुशहाल घर
रंगों से महक उठेगा।
अंधेरों से मुस्कुरा के मिलिए
इंसानियत रोशनी है
जो मोहब्बत सरीखी
ख़ुदा बराबर मीठी मिश्री है।
दबे छिपे ख़्वाब
जो मैं जानती भी नहीं
कहीं छिपे हैं
बेनाम बेपता बेतरतीबी से
आँखों से इशारे करने थे
ज़ोर की सीटी बजानी है
बांसुरी बजाना था ऐसे कि जिन्हें सुन के मेरे आंसू ना थमे थे उस दिन लखनऊ में एक शाम में
ढोलक पर एक बढ़िया सुर के साथ ताल
मोहब्बत इश्क़ में सराबोर हो जाने का
उसके साथ बेझिझक कभी भी मिल पाने का
अपने ही अन्दर अपनी आँखों से चक्कर काट के आने का
चाँद के चाँद होने पर उनके अंधेरे हिस्से में झांकने का
दबे ख़्वाब इतने दबे छिपे हैं कि
लिखने में भी छिपे हैं
लिखा वो जो तुमसे कह सकती थी
पता ही नहीं कि ख़्वाब हैं क्या मेरे?
मेरे ही है या किसी और के?
उस पहाड़ी पर जाना है जहां मैं सिर्फ़ अकेली दिखती हूँ ख़ुद को
उसका हाथ थामना है जो बरसों से उस पानी के किनारे मेरे साथ खड़ा है
उस हवा में साँस लेना है जिसमें मैं तेज़ रफ़्तार से गुज़र जाती हूँ
बग़ैर साँस को जाने बग़ैर थामे
पानी में डूबना है
घुटन को जान कर सांस लेना है फिर से
ये सब अभी के ख़्वाब हैं
जब मैं तुमसे कह रही हूँ
ये भी नहीं जानती
ऐन ये भी नहीं जानती
कि ये जो छिपे दबे ख़्वाब है
ये हैं या नहीं?
मैं नहीं जानती
इसलिए ही शायद ये मेरे ख़्वाब है
तुम ऐसे क्यों देख रहे हो?
तुम अपने भी जोड़ोगे क्या इसमें?
तुम्हारे दबे छिपे ख़्वाब!
क्या तुम जानते वो उन्हें
मज़हबों में बाँट
फ़िरक़ापरस्त हर कदम नफ़रत बोते रहे
किसी को आत्मा से लूटते रहे
किसी को ख़ौफ़ज़दा करते रहे
लुटे वो
खून बहाया और बहे उनके
दागदार माँओं की कोख होती रही
सड़क जो मिट्टी को कुचल पक्की हुई थी
सुर्ख़ लाल हो
छन के मिट्टी तक पहुँची
ये देख ज़र्रा बोल उठा
बोलो अमृता से कि नज़्म पढ़ें
राहुल वोल्गा से गंगा फिर लिखें
पाश भी गुर्रा पड़ें अब
नागार्जुन बाबा का लड़कपन छलके अब
पड़ोस मुल्क जो मज़हब की पैदाइश है
वहाँ से भी आवाज़ बुलंद करो
खून तो सफ़ेद हैं इनके
डरे हुए के खून सुर्ख़ क्या?
ये बीमार मन ज़द है सिर्फ़
ज़हरीला पानी उगलता है
तुम बेहोश जो जाना
इसे पीना नहीं पर,
धर्म नहीं है ये उसका
बाज़ारू रवायत है ये
ये पत्ते गिरते नहीं शाख़ों से
नये रोज़ फिर से उगने को
ये काट देते हैं
और दोज़ख़ के डर से
ख़ौफ़ भर, ज़िंदा रखते हैं
मारना इनकी फ़ितरत नहीं
ये ज़िंदा लाशों का एक हुजूम बना रहे हैं
मैं और तुम सिपाही बनने को बेचैन
हथियार उठाये हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई में
बँटे अंगारे बने बैठे हैं
उसी दिन रात ने सूरज को एक अंगारा दिखा
सुबह कोयला थमाया था
उसने सूरज को कालिख़ का डर बताया था
तुमने कहा था उस दिन
“मैं देश के लिए जलने और मरने को तैयार हूँ”
अंगारा हो या कोयला
ये हिसाब करना भूल गए तुम
और वो रैली ले के निकल गये हैं
नये शहर नये गाँव नये घर।
तुम कालिख बन जाना
सूरज ना बने तो,
शर्मिंदा हो जाना
अगर ना बोल पड़े तो,
दिनकर ना आए
पाश ना गुर्राये
तो इतिहास पढ़ना ख़ुद से
और इंसान बन जाना।
बस इंसान बन जाना।
तुम्हारा नाम क्या है?
अमरमणि
और तुम?
हम गीता
पूरा नाम बताओ
हाँ, गीता राधा
राधा हमारी अम्मा बुलाये और गीता पिता जी
हम अमरमणि यादव
अच्छा जी
हम सोचे त्रिपाठी
(अट्टहास)
वैसे तो फिर गीता राधा कुर्मी
अच्छा अच्छा
कौन गाँव से हो ?
कुर्मियाने का पुरवा
वही ना, चमरउटी के पीछे
और तुम अमरमणि त्रिपाठी?
हम ठकुराने के बग़ल वाले में
हो तो अहीर ना यार तुम!
हाँ हाँ जी
सिंह भी लगाते हो क्या?
नहीं नहीं हमारे चाचा लगाते हैं
इलेक्शन लड़ोगे का?
नहीं नहीं, वो मुलायम के टाइम से लगा रहे हैं
और तुम सब
हम सिर्फ़ यादव
तो अमरमणि सिर्फ़ यादव जी…
(अंदर बेल की तेज आवाज़ आयी)
गुरु जी तेज़ आवाज़ में
अरे बच्चों को हस्ताक्षर करा के जल्दी भेजिए अंदर
लेट हो रहा है
सामने ब्लैकबोर्ड पर लिखा है
“संविधान दिवस के उपलक्ष्य पर सामाजिक समानता पर निबंध प्रतियोगिता”
गीता कुमारी - प्रेजेंट सर
अमरमणि यादव - प्रेजेंट सर
सिद्धार्थ पासी - प्रेजेंट सर
शिवनारायण त्रिवेदी - प्रेजेंट सर
…….
एक रात
फिर कई रात
नई दिल्ली में
रायसीना के चौड़े गलियारे से पहले
वो आगे आगे चलता
वो उसके पीछे
कदमों के बेनिशान निशान पर
कदम दर कदम
चलती जाती
फिर कई रातें
वो पीछे चलते चलते
दोस्त यारों की तरह
हंसते लड़ते झगड़ते इठलाते
साथ चलने लगे
उसे फक्र था
एक ही छल्ले में
दोनों की चाभी का होना
मोमबत्ती के उजाले में
परछाई संग रात बिता देना
कभी ग़ुस्से और नख़रों में भूखे सो जाना
यक़ायक हर रोज़ तकरार ने
ऐसी जगह बनाई
की वो परछाई बन गई
मोमबत्ती के उजाले हट गये
अंधेरे में भी वो दूर दूर सो गये
क्या वो दूर दूर हो गये ?
शहर बदले मकान बदले
चाभी के छल्ले और चाभियाँ अलग हो गई
मक़ाम एक हैं
रास्ते भी एक हैं
पर साथ चलने में
इतनी गुस्ताखी क्यों है
तल्ख़ी और जज़्बात क्यों है?
झूठ सच का इतना पैमाना क्यों है?
ये इतने सवाल क्यों हैं?
फिर एक दिन सवाल भी बंद हो गये
थकने की आवाज़ काँच के टूटने जैसे होती होगी
चुभती रहती है हर ठीक से मिटे ना तो
वो चाहिए तो पूरा वरना नहीं
इसका भरम था उसे
आज उसके संग घर बसा रही है
पर वो ना मिला
ये कैसा साथ है
वो है तो पूरा घर बार भी है
पर वो जिससे इश्क़ में खो गई थी वो
दोस्त पा मचल गई थी जो
अब अच्छे दोस्त का टैग लगा
अकेले ही शाम गुजरा करती है
रात स्याह हो या पूर्णिमा
काली ही जाया करती हैं
सब कहते हैं
दुख बड़ा है आपकी कविता में
भरम टूटे तो क़िस्से जन्म लेते हैं
मुस्कुराहट तो गलियारों के कोने में
सुगबुगाती ही मिलती हैं
फिर या तो हंसी खेलती हैं
घुँघरू पहन
या फिर नृत्य वियोग रस में तांडव करता है
भ्रम टूटे तो
भरम की नहीं वास्तविकता की ही परीक्षा होती है।
रात अमावस हो या पूर्णिमा
चाँद की ही नपाई होती है।
वो मेरे बिना रह सकता है
अब ये सवाल नहीं रहा
वो रह के दिखा रहा है
जहां मैं ना होऊँ
वहाँ अपनी दुनिया बसा रहा है
एक सुई सी चुभे
जिसमें टन का भार भी हो
ऐसा दर्द होता है
साँसें लेने में
दिल डूब जाता है
मैं फिर उसी कमरे के कोने में
बैठ जाती हूँ
उस रात तो उसने अपने पास बुला लिया था
पर अब नहीं बुलाता
प्यार ऐसे ही अचानक नहीं
धीमे धीमे ख़त्म हो जाता है
मैंने ख़ुद को सहेज लिया है
चोट लगने से डरती जो हूँ
दिन में हंसती हूँ खुल के
रातों में ख़ुद के साथ की
बेईमानी का बोझ आंसू से धो देती हूँ
और ग़द्दार आँखें
अगले दिन
मुँह सूजा सबको बताती फिरती हैं
कि कल रात ये भीगी थी
बवंडर में बारिश में जकड़ी थी
इंतज़ार यूँ ही नहीं
धीरे धीरे आदत बन जाता है ।
उसका प्यार ख़त्म हुआ
मेरा इंतज़ार बढ़ गया।
ख़ुद के शब्द
बेवजह बस बात करने की
रवायत का हिस्सा जैसे
ना मतलब कोई उनका
कहीं से आयीं थी मुझमें
और किसी के सामने
निकलने को बेताब
वही घूम घूम के
बस वही वहीं
अच्छा!
लहरें भी तो घूम घूम के वहीं आती है
तो क्या बेमतलब हो गयीं वो
शब्दों का पूरा समंदर है
और उनका निकलना
लहरों की संगत सा है
रूठ के शब्द चले गये
गले से कहीं दूर
नीचे उतर गये
उस दिन बिना मौन
किसी से बात ना हुई
क्यों क्या हुआ?
सवाल का जवाब देने भी ना आये
अहम भी है इनमें
अच्छा भई!
कितना बोलूँ
कि इन शब्दों के निकलने से
मुझे मैं बेईमान झूठी ना लगूँ
मछलियाँ है क्या अंदर
जिनको ऑक्सीजन चाहिए?
केकड़े और फंगस भी?
शब्द समंदर की लहर है भी क्या?
या उसी का एक नया जाल?
जिसमें मैं फिर से फस गई?
मछली है कौन?
कहीं मैं तो…. ?
मैं तो समंदर…..
दुनिया में तमाम उलझने बगावत सितम के किस्से और ज़ुल्म हैं मेरे अपने इश्क़ और इंतज़ार की नज़्मों ने जगह रोक रखी है हैरान हूँ अपनी दीद पर ...