मज़हबों में बाँट
फ़िरक़ापरस्त हर कदम नफ़रत बोते रहे
किसी को आत्मा से लूटते रहे
किसी को ख़ौफ़ज़दा करते रहे
लुटे वो
खून बहाया और बहे उनके
दागदार माँओं की कोख होती रही
सड़क जो मिट्टी को कुचल पक्की हुई थी
सुर्ख़ लाल हो
छन के मिट्टी तक पहुँची
ये देख ज़र्रा बोल उठा
बोलो अमृता से कि नज़्म पढ़ें
राहुल वोल्गा से गंगा फिर लिखें
पाश भी गुर्रा पड़ें अब
नागार्जुन बाबा का लड़कपन छलके अब
पड़ोस मुल्क जो मज़हब की पैदाइश है
वहाँ से भी आवाज़ बुलंद करो
खून तो सफ़ेद हैं इनके
डरे हुए के खून सुर्ख़ क्या?
ये बीमार मन ज़द है सिर्फ़
ज़हरीला पानी उगलता है
तुम बेहोश जो जाना
इसे पीना नहीं पर,
धर्म नहीं है ये उसका
बाज़ारू रवायत है ये
ये पत्ते गिरते नहीं शाख़ों से
नये रोज़ फिर से उगने को
ये काट देते हैं
और दोज़ख़ के डर से
ख़ौफ़ भर, ज़िंदा रखते हैं
मारना इनकी फ़ितरत नहीं
ये ज़िंदा लाशों का एक हुजूम बना रहे हैं
मैं और तुम सिपाही बनने को बेचैन
हथियार उठाये हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई में
बँटे अंगारे बने बैठे हैं
उसी दिन रात ने सूरज को एक अंगारा दिखा
सुबह कोयला थमाया था
उसने सूरज को कालिख़ का डर बताया था
तुमने कहा था उस दिन
“मैं देश के लिए जलने और मरने को तैयार हूँ”
अंगारा हो या कोयला
ये हिसाब करना भूल गए तुम
और वो रैली ले के निकल गये हैं
नये शहर नये गाँव नये घर।
तुम कालिख बन जाना
सूरज ना बने तो,
शर्मिंदा हो जाना
अगर ना बोल पड़े तो,
दिनकर ना आए
पाश ना गुर्राये
तो इतिहास पढ़ना ख़ुद से
और इंसान बन जाना।
बस इंसान बन जाना।
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