पेशावर
एक बाढ़ सी आ गयी। कही आंसुओं की तो कही नफरत की.… कही मौत की… तो कही खून की … कही धर्म पे सवाल की तो कही धर्म के नुमाइंदों के नियत पे सवाल। बाढ़ आ गयी थी उस रोज़ जब खबर आई पडोसी देस से की कई नन्हे बिलख रहे है आस पास मौत को नाचता देख। रोना तो जैसे कम पड़ रहा था। गुस्सा नामर्दी का सुबूत। फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, न्यूज़ चैनल्स, मीडिया कोई भी हर जगह रो रही थी आवाज़े। क्या उन तक नहीं जाती ये चीख? ये हम सोचते उससे पहले जवाब हाज़िर था.... जाती है उन तक ये चीख। है उनमे दिल। खौलता है उनका खून अपनों का दर्द देख। रोते है वो भी। बिलखते है जब उनका अपना कोई छूट जाता है उनसे। इसिलए तो संदेसा भेजा की ये बदला है हमारे खून का। वो अपने खून का बदला किसी के अपनों के खून से कर गए। तकलीफ हुई की ये वो धर्म के नाम पे करते है। बहुत बुराई हुई। हर तरफ कौतुहल सन्नाटा और उस सन्नाटे में एक गाला फाड़ के चिल्लाती हवा जो कह रही थी क्या मैं सांस ले सकती हूँ? कि कही कभी रोते रोते माँ अपने बच्चे का हाथ पकड़ उसे गले से लगा ये तसल्ली करती की उसकी औलाद ज़िंदा बच गयी आज। फिर डर जाती क्या कल बच पायेगी?
तो कही ठन्डे पड़े हाथो को पकडे खुद यकीं दिलाता वालिद कि शायद सुबह की तरह ये फिर थिरक उठे एक बार। क्यों आखिर क्यों हम ऐसी भावनाओ को याद कर के रोते रहे। क्या करें, जो बच गए है और जो अपने छूट गए.…उनके लिए हम भी बन्दूक उठाये? कैसे तसल्ली दे खुद को कि अपनी औलादो को इंसाफ दिला सकेगे, जो बेक़सूर थे। जिन्हे तो शायद ये भी न पता हो ये खूनी नाच हुआ क्यों था? मलाला, ये एक ही नाम जानती हूँ मैं, और उसके जैसे न जाने कितने बच्चो ने अपनी मासूमियत खो इसके खिलाफ अहिंसा शांति का रास्ता चुना। हिम्मत दिखाई और बढ़ाई भी। पर क्या करे? किसे दोष दे? एक तरफ बड़े लोगो की इजात की हुई नोबेल प्राइज, उसका सन्देश और दूसरी तरफ कुछ और बड़े लोगो की उपज..य़े संगठन, जो आज खुद में ही ब्रांड बने है। जो अपना फन निकाले डसने को तैयार है…मज़े की बात तो ये कि डसने के बाद ये आपको कारण भी बताते है और ज़िम्मेदारी भी लेते है अपने ज़हर की। ये अपना मौलिक कर्त्तव्य पूरा निभाते है।
जब से ये हुआ है…मैं रोज़ सोचती थी क्या लिखू और क्यों? क्युकी लिखने से अपने मन का बोझ कम हो जायेगा। पर इससे क्या फायदा ? पर इसका जवाब सिडनी में हुई घटना के बाद लोगो का यही कहना और बोलना मुझे दे गया। वो सोशल मीडिया से अपने देशवासियों के साथ होने का एहसास दे रहे थे। यही तो हम तब भी करते है जब हमारे पडोसी या रिश्तेदार के यहाँ कोई दुर्घटना घट जाती है। अपनों का साथ थोड़ी हिम्मत देता है और सहारा भी।
पर इस सवाल का क्या? इसका क्या अंत है? जिन्होंने बनाया उन्हें कोसते रहना या जो हम कर रहे है। हम कुछ कर रहे है तो हर बार बार बार ये सफल कैसे हो जाते है? क्या इनके अपनों का खून बहना जायज़ था ? और हमारे अपनों का? किस्से पूछे और क्या? सब रो रहे है। मारने वाला भी और मरने वाला भी। हम मर रहे है और मार रहा है हमे हमारा धर्म। जो ये धर्म का रॉंग कनेक्शन लग गया है उनसे, क्या ये राइट जगह नहीं लग सकता। इनका मैनेजर इनकी फिरकी ले रहा है.... ये इन्हे नहीं समझाया जा सकता ? किसी PK से कुछ काम बन सके या कोई बाबा ही सही जो राइट कनेक्शन लगवा सके। कुछ तो हो सकता होगा। राजनीति के बड़े बड़े महारथी कुछ तो करिये। जो बन पड़ता है, करिये।
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