Tuesday, 14 January 2014

गूंगे के बोल

क्यों उसकी अस्मत लुटने से ही,
तेरा गुस्सा जलने लगता है। 
गूंगे की फ़ड़फ़ड़ाहट से क्यू,
तुझे एहसास होने लगता है.
कही वो भूले चेहरे उसे याद ना आ गए हो,
कि हाँ, आज तो ये गूंगा भी बोल सकता है। 

नाजुक सी कलाई मोड़ी न जाये 
चूड़ी की खनक सच्चाई बताये,
बना दी उसे ही जकड़न 
ये टूटी तो, टुकड़ा चीर सकता है। 
सजा के रखा, सुन्दर बना के रखा,
कि लाल रंग खून का भी तो हो सकता है। 

समय ने निकाला उसे बाहर 
थपेड़ो ने सम्भाला उसे बाहर 
झूमती मस्ती जो तुम्हे लगी 
वो मस्ताना थकावट का सबब भी तो हो सकता है। 

नक़ाब बदलता गया, वो लाल से सतरंगी होता गया 
निखरता गया, महकता गया ,
सराहा भी, सहारा भी,
फिर भी आज उसकी कहानी दुपट्टा बोल सकता है। 

मंदिर- मस्जिद सुकूं से है , अल्लाह-राम इत्मीनान से,
काफ़िर अपनी डगर बदनाम है 
ये ढेकेदार की दुकान न चली तो,
लाशो का ढेर लग सकता है.
उसके पीछे की दास्तां, 
लहू के रंग का किस्म,
मुर्दा है या ज़िंदा है,
वो मलबा बोल सकता है। 

फिर लुटी जब उसकी अस्मत,
इत्मीनानन, ये पर्दा बोल सकता है।  


2 comments:

Unknown said...

सुंदर लिखा है गुलजार कि एक किताब "रात पशमीने की" पड़ी थी लगा उसी का एक पन्ना है ये.
अच्छी शैली है गहराई के साथ.

Kehna Chahti Hu... said...

shukriya mitra..
main to unke dhoor jitni bhi nahi...par aapke bhav k liye abhaar

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