Tuesday, 14 January 2014

आप बस इर्शाद इर्शाद फरमा 
हमे ज़िंदा रखे,
वाह वाह से ताकत थोड़ी नसीब होती रहे,
इस बेज़ुबां का वादा रहा,
नज़्म की वादा ख़िलाफ़ी 
औ अल्फ़ाज़ों का मुकरना जैसा 
दुबारा न होगा। 

वो दरख़्त ओ दीवार भुला दे आप
जिसपे बयान थी कहानी                   
मेरी बेवफ़ाई की 
मैं बिना साजो सामान रह गया 
बोले थे अल्फ़ाज़ कुछ सच्चे कड़वे 
पर उसे वादा ख़िलाफ़ी लगी
हम हो गए बेज़ुबान। 

पर याद है हमे, आपका इन्तज़ार 
बस थोड़ी ताकत की गुज़ारिश है  
इर्शाद सुनते तो नम पड़ा शायर 
नज़्म पढ़ जाये 
तो हम तो बस जुबां से महरूम है। 

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर मनोहर प्रस्तुति कोमल भावों का जादू शब्दों में पिरोके रख दिया है आपने

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