डर-एक जिन्न

मुझे मिला एक जिन्न
हमेशा की तरह निकली थी घर से
कुछ सोचते अजीब ओ ग़रीब
पर मेरी पसंद
कभी गुस्सा तो कभी होंठ दाँतों तले
और न जाने उनमें हंसी कब होंठो को
दांतो से रिहा कर जाती,
आँखों, होठो, दांतो की रस्साकसी में
मुझे मिला एक जिन्न।

टकराया था मुझसे
कुछ बरस पहले, पहली दफे
ना मुराद बे काम समझ कोसा था उसको
फिर वो टकराता ही रहा
ये मुलाकात तो नहीं
टकराव ही कहूँगी
कि हर बार मैं ही बिखरती थी
इस मुलाकात में
जिसमे ना मर्ज़ी थी, ना कोशिश थी मेरी।
ये बिखरना  भी ग़जब,
हर बार फैलती गयी
सिमटती गयी और
मजबूत सुढृण बनती गयी मैं।

इस दफे जब मिला वोz
बे झिझक बे अदब मसल डाला उसे
रौंदा उसे
पता चल चुका था मुझे
कि ये एक जिन्न है
कई दफे का हिसाब जो चुकाना था
ढेर सारी मुराद जो बाकी थी
इच्छा नहीं कहूँगी
कि इसमें न मर्जी थी, न कोशिश थी उसकी।

रगड़ा नहीं रौंदा है मैंने उसे
फिर भी मैं बिखर  गयी
सिमट उठ खड़ी हुई
तो देखा
कठोर थी मैं अब
वो मासूमियत छुप गयी थी उसी में कही
कि कही फिर से ये टकराव
जख्मी न कर दे उसे।

सब डर उठे
कोई  टकराता नहीं अब
जिन्न से फैला दी वो बात
कि रौंदना सीख लिया है मैंने
वादा करके गया वो
फिर आएगा नया तूफ़ान ले कर  
इस बार देखो कौन जिन्न बनता है
मैं उसे या वो मुझे
कौन किसे रौंदता है।



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