सच अटल है,ये रुकता नहीं, झुकता नहीं, टूटता नहीं, मिटता नहीं ,,,,और न जाने क्या क्या सच की ताकत का एहसास कराने के लिए सच की तारीफ में कहा जाता है.और हमे उसके साथ रहने के लिए उसकी ये अच्छाई स्वरुप रिश्वत दी जाती है. जिससे हम मानव जो हमेशा जीतना चाहते है, हारने के डर से सच का साथ न छोड़े. जैसे जैसे बड़े होते गए सच की कई कमियाँ कमजोरियां जैसे सच का टूटना, गिरना, घुटना, उसकी हार और दूसरों की जीत दिखने लगी, अब ये सच का प्यासा इंसान क्या करे? जिस लाठी को पकड़ वो जीत हासिल करने चला था आज वही उसे हर मोड़, हर नुक्कड़ पर, अखबार के हर पेज पर हारती दिखाई देती है. कुछ अपनी पार्टी बदल लेते है क्यूकि वो किसी भी कीमत पर ज़िन्दगी में हारना नहीं चाहते. और शायद वो गलत भी न हो. क्यूकि इसी समाज के कई विद्वानों ने बताया की सही गलत कुछ नहीं सब दिमाग का फेर है…. सब मोहमाया है. स्तिथि के हिसाब से react करे और खुद पर भरोसा। और इसी ज्ञान के भरोसे हम में से ना जाने कितने युवक और युवती कॉलेज एडमिशन में GD और पर्सनल इंटरव्यू से लेकर अपनी प्रोफेशनल ज़िन्दगी में अधिकतर एक्साम्स पास कर ले जाते है. जिसने सही को सही और गलत को गलत या फिर इसकी अदला बदली अपने हिसाब से की हो, ना की सच्चाई और झूठ के बिनाह पर और वो सफल भी रहा है,वो इन बातो को क्यों सुनेगा?
वो सुनेगा...सुनेगा ही नही समझेगा भी.… अरे भाई,आपका क्यू, क्या,कैसे सब पूछना बनता है. हम सच और झूठ की नाव से कब सही गलत कि नाव पर चढ़ गए, ये हमे पता तो चलता है थोडा लेकिन देर से. यही भूल हम अपनी प्रैक्टिकल लाइफ में भी करते है. हम सच और झूठ को आये दिन सही और गलत के तराजू में तौलने लगते हैं और फिर confusion…
सच या फिर झूठ एक परिस्थिति में घटी हुई घटना होती है जिसे अगर बिना छेड़-छाड़ के बताया जाए तो सच अन्यथा वो झूठ कहलाता है. बस इतनी सी ही कहानी है, इसके बाद शुरू होता है सही गलत का सिलसिला, कि उस घटना पर चिंतन,उसका आप पर और अन्य बातों पर साइड-इफ़ेक्ट और उसके मुताबिक़ बात का सही और गलत होना। ये दोनों बातें एक दूसरे से काफी हद तक जुडी हुई है कि हम कब बाउंड्री क्रॉस कर दूसरे पाले में गिर जाते है हमे कभी पता ही नहीं चलता और चलता भी है तो खुद को सही साबित करने के लिए अपने सही गलत के रूल्स बनाते लगते है जो दूसरे के सही गलत पर काट हो सके.
उदहारण के लिए, जैसे कि हमारे दोस्त, उनकी आदतें, एक्साम्स में हमारे मार्क्स,सिर्फ हमारे ही नहीं हमारे दोस्तों के मार्क्स, उनके साथ घूमना, जूनियर कॉलेज में आते के साथ दोस्त के साथ साथ गर्ल-फ्रेंड और बॉय-फ्रेंड की टेंशन, कैरियर चॉइस, ज़िन्दगी में एक्स्प्लोर करने का बेस्ट टाइम और उसमे कैरियर के लिए डेडिकेशन, फिर जॉब, शादी, उसके बीच में कई सारे इन्वेंशन्स, अपनी लिमिट्स जानने के लिए लिमिट्स क्रॉस करने में हुई नादानी और बहुत कुछ..इन सब में सच एक ही रहता है पर सही और गलत के मायने परिवार के हर सदस्य के लिए अलग अलग होते है. इसी सही गलत को समझने में,समझाने में हम सच को झूठ और झूठ को सच बनाना शुरू कर देते है.
मैं इसमें कुछ नया नहीं बता रही हूँ, मैं बस अपनी बात रख रही हूँ और शायद आप भी इससे इत्तफ़ाक़ रखते हैं की जिस बात का अस्तित्व सार्वजनिक तौर पर स्वीकार न हो मतलब यूनिवर्सली एक्सेप्टेड न हो, वो सही या गलत के तराजू में किस पैरामीटर पर तौली जायेगी। इसीलिए कहा जाता है develop your sense. Don't become football of other's views.
मैं अब भी कई बार कंफ्यूज हो जाती हूँ और शायद आप भी.… मुझे पता है मैंने जो कुछ भी लिखा है वो इन्कम्प्लीट सा है. विचारों की कमी है. क्या मैं आपके विचारों का उपयोग कर सकती हूँ इसे कम्पलीट करने में.…
धन्यवाद