घर की टेढ़ी खाट
टूटा चूल्हा और मीठा भात
दादी की चोटी दादा का डंडा
माँ के हाथों की रोटी
बापू का खेतों में बसा धंधा
बापू का खेतों में बसा धंधा
आम की छैया में गिल्ली डंडा
मेरी तख्ती मास्टर का डंडा
टेड़े मेढे रास्तों से मैं आ गयी
इन चौड़ी सडकों में खड़ी न जानू कहा है मेरा घरौंदा
सकरी गलियों में नहीं फसी
चौड़े रास्तों पे रोज़ गिरी
मद्धम रोशनी में सपना देखा
इन उजालो में अंधी क्यों हुई मैं
अब फिर याद आये टेढ़ी गलियां सीधा रास्ता
अँधा मोड़ और मोड़ पे बांस का अड्डा
न रुकने वाली बैलगाड़ी
और उनके गले में बंधा वो घंटा
बापू के हाथ की पकड़
और माँ का परदा
उनका करतब बाबा का धंधा
दादी की सुर्ती
काका का हुक्का
चाची का मरना
हमारा बढ़ना
फिर फ़र्क क्या है उस देस और इस शहर में
यहाँ चलता वही धंधा खुल्लमखुल्ला
यहाँ परदा नहीं
यहाँ परदा नहीं
मन अब भी वही सोचता
माँ-चाची यहाँ भी मरती
बचपन तेजी से बढ़ता
दादा दादी घर की शान
देते ये भी वही ज्ञान
रास्ते यहाँ बस चौड़े है,
जो कई गलियों को जोड़े है
ये गलियां भी टेडी है,
कई कहानियों को मोड़ी है.
फिर डर कैसा, मैं क्यूँ परेशान?
है वही समाज वही इंसान
सिद्धांतों और कानूनों पे टिका,
हर दिन टूटता, जुड़ता, बनता, बिखरता
इनका वजूद और पहचान।
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