Tuesday, 3 September 2013

वो मेरा मदारी

ज़िन्दगी जोडती रही कहानियाँ,
हम सड़क किनारे बैठ पन्ने सिलते रहे

लिखती कहानियों को पन्ने कम न पड़ जाए
कभी उधार लिया तो कभी खुद की चमड़ी उधेड़ी
कभी रंग भरे तो कभी लहू से सींचा
कि कभी उन रंगों में कमी न पड़ जाए

अपने अश्को को रोक के रखा
कि जैसी सतरंगी बनाई है ज़िन्दगी उसने
वो फीकी ना पड़ जाए
चाँद की रोशनी दिखाई,
अमावस में खुद को जलाया
कि कहीं उसकी लौ फीकी ना पड़ जाए

वो खेल खेलता रहा
और मैं उसके इशारों पे घूमती रही
कि कहीं बनानेवाले की फितरत में फर्क न पड़ जाए

पर आज रुक गयी मैं,
जी करता है इन पन्नो को फाड़ दूँ
उसके तार तोड़ दूं
उन रंगों पर अमावस की रात डाल दूं
क्यूंकि आज वो मुझे कहता है,
कि बंद कर ले आँखे,तमाशा ख़त्म हो गया.…

…और मैं मोहलत मांगती रही
कुछ गाड़ा रंग और दे दे इन पन्नों को.... 

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