दबे छिपे ख़्वाब
जो मैं जानती भी नहीं
कहीं छिपे हैं
बेनाम बेपता बेतरतीबी से
आँखों से इशारे करने थे
ज़ोर की सीटी बजानी है
बांसुरी बजाना था ऐसे कि जिन्हें सुन के मेरे आंसू ना थमे थे उस दिन लखनऊ में एक शाम में
ढोलक पर एक बढ़िया सुर के साथ ताल
मोहब्बत इश्क़ में सराबोर हो जाने का
उसके साथ बेझिझक कभी भी मिल पाने का
अपने ही अन्दर अपनी आँखों से चक्कर काट के आने का
चाँद के चाँद होने पर उनके अंधेरे हिस्से में झांकने का
दबे ख़्वाब इतने दबे छिपे हैं कि
लिखने में भी छिपे हैं
लिखा वो जो तुमसे कह सकती थी
पता ही नहीं कि ख़्वाब हैं क्या मेरे?
मेरे ही है या किसी और के?
उस पहाड़ी पर जाना है जहां मैं सिर्फ़ अकेली दिखती हूँ ख़ुद को
उसका हाथ थामना है जो बरसों से उस पानी के किनारे मेरे साथ खड़ा है
उस हवा में साँस लेना है जिसमें मैं तेज़ रफ़्तार से गुज़र जाती हूँ
बग़ैर साँस को जाने बग़ैर थामे
पानी में डूबना है
घुटन को जान कर सांस लेना है फिर से
ये सब अभी के ख़्वाब हैं
जब मैं तुमसे कह रही हूँ
ये भी नहीं जानती
ऐन ये भी नहीं जानती
कि ये जो छिपे दबे ख़्वाब है
ये हैं या नहीं?
मैं नहीं जानती
इसलिए ही शायद ये मेरे ख़्वाब है
तुम ऐसे क्यों देख रहे हो?
तुम अपने भी जोड़ोगे क्या इसमें?
तुम्हारे दबे छिपे ख़्वाब!
क्या तुम जानते वो उन्हें
9 comments:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शनिवार 17 फरवरी 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
सुन्दर
बहुत सुंदर
बेहतरीन
बहुत धन्यवाद यशोदा जी सुशील जी
उम्दा !! 👍🏻
सुंदर
सुंदर
सुंदर रचना
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