ज़रूरत ना हो तो
अब कोई पूछता नहीं
ना दोस्त, ना प्यार
ना घर ना दरबार
अकेले तो रही कई सालों से
अकेली आज हुई हूँ
ख़ालीपन का सबब अब सोख चली हूँ
सुनती रहती हूँ बेहतर दिखने का क़िस्सा
एक कामगर और मुस्कान का हिस्सा
जो बन गयी तो मशहूर हो जाऊँगी
सबमें जानी जाऊँगी
पहचानी जाऊँगी
जो आज सब है तो अकेली हो गयी हूँ
मेरे घर के बाहर का वो लंगड़ा कुत्ता
और मैं एक जैसे हो गयी हूँ
वो रहता है अक्सर यहीं
सबने प्यार से रख लिया है
बातों में याद कर लेते हैं
आते जाते दुलार कर लेते हैं
ना भौंकता है ना काटता है
रोटी दे के
कभी कभी इसका भी ज़िक्र कर लेते हैं
मैं भी गर ना काटूँ और भौंकूँ
तो बुरी नहीं किसी के लिए
क्या पता ये वक़्फ़ा ही कुछ ऐसा है
फ़िज़ा ही अज़ाइम-परस्त बन गयी है
या फिर साथ अब ज़रूरत से बनने लगे हैं
या मैं पड़ गयी कमजोर
कि तेरे, उसके, तुम्हारे, उनके, आपके
बिना पूछे, बिना पुचकारे
बिना दुलारे
अकेली पड़ गयी हूँ
अकेली तो बहुत दिनों से थी
पर अकेलापन ने अब जा कहीं घेरा है मुझे
इन ज़रूरतों के रिश्तों में अपने पाँव खोजती हूँ
लफ़्ज़ नापती हूँ
बैठक बना रही हूँ
कि जब तक ज़िंदा हूँ
चलने की बाबत कुछ कहना तो पड़ेगा ही।
# अज़ाइम-परस्त : योजनाकर्ता, इरादों और योजनाओं का पुजारी
2 comments:
वाह, खूबसूरत अभिव्यक्ति, कड़वी लेकिन सच्ची बात
Move on
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