तुमने कहा उस रोज
उस वक़्त में वक़्त से बेपरवाह
जब तुम पहाड़ के सामने थे
तुम और पहाड़ में 'और' कही लापता था
तुम खुद से बेखबर थे
पहाड़ का अस्तित्व
तुम था
तुम वो पहाड़ हो
मैं सोचती थी
कैसे हो जाते हो तुम
एक पहाड़
सब पहाड़
झरना
बारिश की बूंदें
पतझड़ में बिझडे पत्ते अपनी शाखों से
कैसे होते हो तुम?

आज घर के सिरहाने पे
बैठी आधी रात
पूरा शहर शांत
सड़क पे जाती ट्रॉली
गड्ढों से घर्षण
और उठती एक आवाज़
बारिश की बूंदें
दूसरे छोर से आती
शंखनाद कर पल पल
दिखती सुनती
स्ट्रीट लाइट में
एक पल
अनेक पल
बस वो आवाज़े थी
और मैं थी
फिर बीतते पल
बस वो आवाज़े
फिर
अगले पल मैं
क्या यही है एक होना
ये बस उस पल का है
न मेरा न बारिश का
न धरती का है
न एक होना किसी से जुड़ता है
न पल मुझ पर टिकता है

इस छत ने मानो
शिला दी
आकार दिया उजियारे ने
आवाज़ चली कानो से गूंजी
एकमय हुआ
अंदर नही
बाहर नहीं
कही होता है
क्या मैं इसे क्षितिज कहूँ?

मुझे नाम देना क्यों है पर?



Comments

yashoda Agrawal said…
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 18 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
Unknown said…

छलिया है
या
छलावा है
तू
हर पल
एक भुलावा है
कभी
गर्म कम्बल सा
लिपटा हुआ
कभी
काली काफी की
भाप सा
उड़ता हुआ
तू
मेरे अंदर आता है
और
मेरे
अंदर का
आसमान
बन जाता है
रंगों और गंधों में
फैल जाता है
सायों की हकीकत
कहीं
गुम हो जाती है
अंधेरे
थोड़ी देर
उजालों
में डूब जाते हैं
मैं और
मेरा मन
एक छलावा
जी लेते हैं
रोज़ ऐसा होता है
हर रोज़
एक ज़िन्दगी
रोज़
पैदा होती है
हर रोज़
एक इच्छा
एक थपकी से
सो जाती है
एक डर
मेरी नींदों को
चौकन्ना रखता है
कल अगर
तेरा भरम
मेरे अंदर
न जाग पाया
तो क्या…???

तू नहीं होगा
क्या मैं तुझे
नींद बना लूं
बिछा लूँ
ओढ़ लूँ
सो लूँ
नींद,
सपना,
आसमान,
बादल,
पहाड़,
नदी,
समंदर,
खामोशी,
गहराई,
सपनो
में आती
बेआवाज़ तस्वीरें
हर पल
बदलता
टूटता
मंज़र
सायों
की हकीकत
नींदों
का डर,
डरता है
मेरा मन
कभी
तेरा भरम
मेरे मन को
न भरमा पाया
तो क्या ...???

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