तुमने कहा उस रोज
उस वक़्त में वक़्त से बेपरवाह
जब तुम पहाड़ के सामने थे
तुम और पहाड़ में 'और' कही लापता था
तुम खुद से बेखबर थे
पहाड़ का अस्तित्व
तुम था
तुम वो पहाड़ हो
मैं सोचती थी
कैसे हो जाते हो तुम
एक पहाड़
सब पहाड़
झरना
बारिश की बूंदें
पतझड़ में बिझडे पत्ते अपनी शाखों से
कैसे होते हो तुम?
आज घर के सिरहाने पे
बैठी आधी रात
पूरा शहर शांत
सड़क पे जाती ट्रॉली
गड्ढों से घर्षण
और उठती एक आवाज़
बारिश की बूंदें
दूसरे छोर से आती
शंखनाद कर पल पल
दिखती सुनती
स्ट्रीट लाइट में
एक पल
अनेक पल
बस वो आवाज़े थी
और मैं थी
फिर बीतते पल
बस वो आवाज़े
फिर
अगले पल मैं
क्या यही है एक होना
ये बस उस पल का है
न मेरा न बारिश का
न धरती का है
न एक होना किसी से जुड़ता है
न पल मुझ पर टिकता है
इस छत ने मानो
शिला दी
आकार दिया उजियारे ने
आवाज़ चली कानो से गूंजी
एकमय हुआ
अंदर नही
बाहर नहीं
कही होता है
क्या मैं इसे क्षितिज कहूँ?
मुझे नाम देना क्यों है पर?
उस वक़्त में वक़्त से बेपरवाह
जब तुम पहाड़ के सामने थे
तुम और पहाड़ में 'और' कही लापता था
तुम खुद से बेखबर थे
पहाड़ का अस्तित्व
तुम था
तुम वो पहाड़ हो
मैं सोचती थी
कैसे हो जाते हो तुम
एक पहाड़
सब पहाड़
झरना
बारिश की बूंदें
पतझड़ में बिझडे पत्ते अपनी शाखों से
कैसे होते हो तुम?
आज घर के सिरहाने पे
बैठी आधी रात
पूरा शहर शांत
सड़क पे जाती ट्रॉली
गड्ढों से घर्षण
और उठती एक आवाज़
बारिश की बूंदें
दूसरे छोर से आती
शंखनाद कर पल पल
दिखती सुनती
स्ट्रीट लाइट में
एक पल
अनेक पल
बस वो आवाज़े थी
और मैं थी
फिर बीतते पल
बस वो आवाज़े
फिर
अगले पल मैं
क्या यही है एक होना
ये बस उस पल का है
न मेरा न बारिश का
न धरती का है
न एक होना किसी से जुड़ता है
न पल मुझ पर टिकता है
इस छत ने मानो
शिला दी
आकार दिया उजियारे ने
आवाज़ चली कानो से गूंजी
एकमय हुआ
अंदर नही
बाहर नहीं
कही होता है
क्या मैं इसे क्षितिज कहूँ?
मुझे नाम देना क्यों है पर?