Saturday, 18 April 2020

तुमने कहा उस रोज
उस वक़्त में वक़्त से बेपरवाह
जब तुम पहाड़ के सामने थे
तुम और पहाड़ में 'और' कही लापता था
तुम खुद से बेखबर थे
पहाड़ का अस्तित्व
तुम था
तुम वो पहाड़ हो
मैं सोचती थी
कैसे हो जाते हो तुम
एक पहाड़
सब पहाड़
झरना
बारिश की बूंदें
पतझड़ में बिझडे पत्ते अपनी शाखों से
कैसे होते हो तुम?

आज घर के सिरहाने पे
बैठी आधी रात
पूरा शहर शांत
सड़क पे जाती ट्रॉली
गड्ढों से घर्षण
और उठती एक आवाज़
बारिश की बूंदें
दूसरे छोर से आती
शंखनाद कर पल पल
दिखती सुनती
स्ट्रीट लाइट में
एक पल
अनेक पल
बस वो आवाज़े थी
और मैं थी
फिर बीतते पल
बस वो आवाज़े
फिर
अगले पल मैं
क्या यही है एक होना
ये बस उस पल का है
न मेरा न बारिश का
न धरती का है
न एक होना किसी से जुड़ता है
न पल मुझ पर टिकता है

इस छत ने मानो
शिला दी
आकार दिया उजियारे ने
आवाज़ चली कानो से गूंजी
एकमय हुआ
अंदर नही
बाहर नहीं
कही होता है
क्या मैं इसे क्षितिज कहूँ?

मुझे नाम देना क्यों है पर?



Friday, 10 April 2020

बैठक

आज सभा बैठी थी
कोरोना गर्दिश में
इंसान गफलत में
कोई दर दर भटक रहा है
कोई बंद किवाड़ में
दिन गिन रहा है
ये वही इंसान है
जो 15 के होने से पहले ही
दुनिया चाहे मुट्ठी में करना
पूरी दुनिया नाप और माप
विज्ञान ज्ञान का देवता
वो इंसान
आज लुक छुपी खेल रहा है
नियम बनाते बिगाड़ते
किसी पीपल वाले अदृश्य
पर बाबाओ को दिखने वाले
सफेद भूत दे डर रहा है।

तो आज बैठक बैठी
इन बेचारे इंसानो की नही
जो मेरी मुट्ठी में रहते है
कितनी भी दुनिया मुट्ठी में कर ले
इशारे पे नाचते है
मैं.... मैं कौन?
अच्छा तो मैं हु 'इमोशन'
वही रोना हँसना चिढ़ना चिल्लाना गुस्साना
मारना काटना डरना भागना घबराहट
दुःख ख़ुशी संतुष्टि ईर्ष्या
अब और क्या क्या बताऊँ
तुमने तो मुझसे ज़्यादा मुझे जिया है
इसी में उलझे बीतते है लम्हे तुम्हारे

तो... हमारी हम सब की सभा लगी
क्यों?
वो इसलिए...
क्योंकि तुम इंसानो को बड़े अरसे बाद
नई मुश्किलें आन पड़ी
वही फैसला करने
कि
इस मौसम में
रियायत बरते
या घनघोर मूसलाधार धमक पडे
हम भी इस वायरस जैसे
परजीवी है
जिसे लोग मालिक मान बैठे
जाने -अनजाने में

हँसी बोली
मैं तो ताश के पत्तों संग हूं
उनो लूडो में हूँ
दादा दादी के नन्हे मुन्नों में हूँ
आंसू, रामायण महाभारत की कथा सुनाते
बड़बोला बन बैठा
बोला जितना रोये आंखे
उतना मैं ना मैला
खुशी संग रास रचाये
समय की घण्टी पर
मन है डोला
इंसानो के घर रिश्तों की
ये गर्माहट
क्या जला रही थी तुमको
जलन पूछ बैठी पट से
जब चिढ़ झांक रही थी
मन चकित कर
बीच सड़क पर टहलती एक कोयल को
गुस्सा फूट पड़ा
बोला मेरा है बोलबाला
इंसान न चाहे एक दूजे को
कितना भी कर लो
इंस्टा पे घोटाला
धैर्य मुस्कुराया
कहता मेरा हाथ पकड़
सब जा रहे उस छोर
बस पैसों की गर्मी है
वरना सब माखनचोर

शोक व्याकुल हो उठा अब
ढेर लगते देख
हुजूम लाशो का पडा
जैसे सामूहिक होड़
कंधो की पाबंदी लग गयी
ज़रूरत जैसी चीज मन से उपर हो गयी
माँ की कोख
कोरोना से भर गयी
नया नया काका झोली में भर के
ममता डाली तांक पर
किया सभी को दान
पर ऐसे हवा चल रही
भाते न भगवान
बोल उठा शोक उस दिन
मैं तो मातम मना रहा

तभी कही से सरल हवा चल
कहकही सी संतुष्टि आ गयी
लेकर नया एहसास
कहती दृष्टि संभालो
नया जीवन देखा क्या तुमने
सारे शोक मिटा लो
उपयोगी बन
सब रह लो
न करो लूटपाट
लालच क्रोध तृष्णा
परोपकार के विभिन्न प्रकार
उपयोगी बन
इंसानो की बस्ती में
चलो एक मुहिम चलाये आज
सारे मिल इन इंसानो को
इंसानियत का पाठ पढ़ाये आज।




हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...