Sunday, 13 October 2019

उसकी परछाई की चाह में
घूमे फिरे उसकी राह में
वो छूटा सा था
आज़ाद मुझसे
गली के मोड़ पर
ढलती शामों में
सूरज के जाने पर
चाँद के आने पर
उसके ग़ुम हो जाने पर
मेरे करीब आ जाने पर......
परछाई मद्धम हो
खो गयी
कभी मेरी उसकी एक हो गई
वो छूटा था
आज़ाद था
फिर कैद हो हई
दो परछाई शाम तक
अस्तित्व खो
खो गयी
या ऐसे कह दूं
कि
एक हो गयी।
किसी ने फुसफुसाया
शरीर का क्या..जो आज़ाद थी...वो
वो... रात अंधेरे में
किसे पता कहाँ सो गई।

Thursday, 9 May 2019

रैंडम थॉट

[5/9, 5:54 PM] garima: 

न कही जाने की जुगत है
न ही तलब
पर यहां रुकना भी नही
और जाना भी है
कैसे और कब जाउंगी
और कहां?


[5/9, 5:58 PM] garima:

ठहराव अच्छा मानते है
चरित्र की विशेषता मानते है
न समझ पाती हूँ
न देख पाती हूं
डर हो के भी डर नही है
एहसास बहुत
उनके निशान बहुत
तेज़ सांसो की रफ्तार बहुत
पर मेरी नज़र कही और है
सब नकार
सब संभाल
कुछ भूली
कुछ पगली
उससे
किससे?
मिलना चाहती है
अस्थिरता
ये बेचैनी
चरित्र की
निशानी है क्या?

Monday, 22 April 2019

प्यार करने वाले हिसाब नही मांगा करते

प्यार करने वाले हिसाब नही मांगा करते
साथ देने वाले कदमो के साथ जुबां की चहलकदमी कर
एहसान नही जताया करते
उसने तोहमद लगाई कि
मुझे रिश्तों की समझ नही
उसे कौन बताये
मोहब्बत करने वाले
ऊंच नीच की गफलत में सर खपाया नही करते
वो समाज से बड़ा खौफ खाये बैठा है
मुझसे रुठ के
सौ रुस्वाई लिए बैठा है
बड़े दोजख किस्म के ताने है
उनपे खफा हो जाऊं
तो बेवफाई का खिताब लिए बैठा है
कैसे बताऊ कि
इश्क़ किया था मैंने
दुनियावी तिलिसमो से बची थी
तो पाक थी
वो कहता भी है कि
तू पाक हुआ करती थी कभी
अब नही
अब तू बदल गयी
कैसे समझाये कि
हसरतों से लड़ते हुए
काफ़िर हो जाये
तो इबादत का हुनर नही जाया करते
तौर तरीकों में बेशक फर्क होगा वाजिब
पर हर फर्क पे
गैरों सी शिकायत कर
उन्हें कैद कर अल्फ़ाज़ों के ज़जीरों से
मुस्कुराती हुई तबस्सुम नही मांगा करते
इश्क़ करने वाले
कभी हिसाब नही मांगा करते
हुम् भी बेगैरत हो गए
वरना मोहब्बत वाली भी
कभी जवाब में माफी नही मांगा करते
हरगिज़ अपनी इश्क़ को सवाल में तौला नही करते।
*********
उसने गिना दिए हर रोज़ के किस्से
उसका मेरे लिए बाअदब हर इश्क का साफा
बात दिए मेरे हर फक्र को
खालिस एक दिखावा
तौल डाला अपने पैमाने से मेरा इश्क़
मै लड़ पड़ी बेगैरत खुद को सुन
उसने बाइज़्ज़त बेदख़ल कर दिया हर इकरार से
मैं गला फाड़ चिल्लाती रही बेख़ौफ़ गुस्से में
वो लगातार मेरी हिमाकत पे
एक दलील बताता रहा
आखिर में वो बोल उठा
मैं हार गया
और मैं अपने अक्स और चिल्लाने के फर्क को भी न समझा पायी
पिछले दिनों वो धमकी जैसा आया
मै न सन्नाटा रह पायी
न चिल्ला पायी
न उसे रोक पाई
न खुद जा पायी
वो फक्र से कह गया
कि मैं ही बेवकूफ हु
के
प्यार किया था तुझे
शायद इसलिए हिसाब मांग रहा
मैं पेज खोल इतना ही लिख पायी
कि प्यार करने वाले हिसाब नही मांगा करते।

Thursday, 14 February 2019

मुझ अकेले कॉफ़ी पीने वाली को
टेबल फ़ॉर टू का खिताब मिल गया
दिया क्या लिया क्या
हिसाब में कच्ची हूँ
तो लेन देन का किताब मिल गया
मैने सोचा दोनो बैठ साथ मे
कॉफी पियेंगे
कुर्सी दो मेज़ एक शेयर करेंगे
उसने कुर्सी पे अपना नाम
और मेज़ पे हिसाब रक्ख दिया
में पहुँचूँ उससे पहले एक कॉफी का आर्डर कर दिया
मैं खुश कि साथी मिला
वो दुखी कि स्वार्थी मिल गया
मैने इसे कॉफ़ी दी
इसने थैंक यू भी न दिया
मैंने इसे टेबल दी
इसने इज़हार भी न किया
मैने इसे किताब दी
इसने पेन भी न दिया
वो खुश न था
खुश होना था उसको पर,
मैं बेवफा न थी
पर हरकतों से वही थी उसके वास्ते
मेरी प्यार की परिभाषा
मुझे मिलती चीजों की तसल्ली
आलसी मिज़ाज़
उसको मेरी तरफ से मिली कमी
एक तरफ बोझ बन गयी
कब मेज़ एक कोने से झुक गयी
टेबल आधी और कुर्सी दो ही रह गयी
मैं तो बस  खिड़की से देखती रह गयी
इधर मेरी शाम बनने से पहले बिगड़ गयी
कॉफ़ी ठंडी और टेबल आधी रह गयी
मैं स्वार्थी और वो साथी बन गया
मैं खुद को खो के
उसे न पा सकी
उसे मैं ना मिली
तो मैं और स्वार्थी हो गयी।

Sunday, 27 January 2019

यूँ ही...

खो गयी वो उत्सुकता
जिसमे समाज का छलावा न था
खो गयी वो मासूमियत
जिसमे दिखने दिखाने का बुलावा न था
खो गया वो बचपन
जो बंद कमरे में हमारी लड़ाई में मिलता था
अक्सर मेरी उंगली मरोडने में
और मेरे नाटक भरे दर्द में
जिसमे लोगों की बातों का झरोखा न था
खो गयी वो हसी
जो तुझे देख
छोटे बच्चे को गुबारा देख
पर्दे से झांकते हुए
आती थी
जिसमे रिवाजो का बटवारा न था
खो गया वो साथ
जिसमे समाज और तहजीब की रवायत नही थी
खो गया वो भरोसा
जो बस आंखों से आंखों में था
जिसमे किसी के मिलने और जाने की शिकायत न थी
खो न जाए वो 'देसी'
जो इन्ही से बनी हैं
जो हर वक़्त तौली जाती है अपने पैमाने पे
जो उसका है
पर वो राज़ी नही
भिड़ के  गिर के
कई दफे इत्मिनान खो के
न पा सकने वाली तसल्ली
और उसमें अपनी एक हैसियत
जो खुद को परिभाषित करने को
सौंप दे
ऐसी कवायद न थी
क्या मिला क्या खोया
ये जब पूछा कक्षा दसवी की 'गरिमा' ने
तो आज समाज के सामने खड़े
खुद को परखते समझते उलझते
ये गरिमा एक नई सीख ले रही थी
जिसमे वो एक गरिमा थी
किसी को आत्मसात कर
छोड़ देने की गफलत न थी।


हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...