Thursday, 23 August 2018

मोहब्बत का इज़हार

जब मोहब्बत का इज़हार
एक पैमाने में नपने लग जाए
तो तुम क्या बोलेगे
करोगे इज़हार
फिर उस मोहब्बत का
जो कभी किसी मोड़ पे
उनके काँधे से
कमर से
ज़ुल्फो में उलझ के
बाहों में फिसल के
कानो के पीछे से
यूँ ही शरारत में
चूम के
आंखों को आहिस्ता
होठो से
महफूज़ होने का एहसास दे के
अचानक से
किसी मोड़ पे
पैमाने में
बाज़ारू साबित हो जाने पे
क्या करोगे?
वो मादकता
वो मुस्कान
वो एहसास
वो तरंग
जो तुम्हे तुम्हारे होने तक
मिट जाने तक
समा जाने तक
रूह को छू जाने तक
रह जाती है
तुम दोनों में
उस झंकार को
मधुशाला नही
बोतलों से तौले
तो क्या करोगे?
चुप हो जाऊं क्या
उसके सम्मान में
एक दीवार
जो अच्छे बुरे की बुनियाद से
पक्की बनी खड़ी है
या कैद कर लूं
सैलाब
डर से कि
कही गंदा न पुकारा जाये।
मै नंगी प्रतिमाओं में
वैश्या की कहानी में
माँ की छाती में
बेवा की आंखों में
मेरी झुर्रियों में
एक आस देखती हूं
आस प्रेम की
जो अंगों से
होठो से
बंद दीवारों से
खुले मैदानों से
स्पर्श से
नज़रो के झुकाव से
उनको तार तार कर जाती है
वो बेमानी हो जाये
तो क्या करोगे?
बदल दो
परिभाषा की किताब
सृजन का इतिहास
इतिहास की शुरुआत
प्रेम का रंग
रंग में प्रेम
ये प्रपंच बदल दो
प्रेम को अच्छे बुरे
पलड़े में
बांट
उसे तराजू में तौलना बदल दो
वो बंधने के पैमाने
तुम्हारे नीली स्याही का स्टैम्प बदल दो
मेरे लिए एक
बस एक
रात
बीवी लड़की साली बेवा वैश्या
इन सब की जात बदल दो
बाज़ारू को घर की
घर की इज़्ज़त को
बाजार में बदल दो
इस प्रेम को
मैं तुम
तुम ये
वो मैं
इबादत को काफ़िर
और मस्जिद को दरगाह में बदल दो
मेरी चाहत को
मेरी नियत
मेरी नियत को
मेरी उल्फत में
बदल दो
मुझे पैमाने में
नाप के
शर्मिंदा करने वाले
मेरी हस्ती को
एक प्रेमी की
धड़कन में बदल दो।
तुम्हे क्यों कहती हूं
इस एहसान को
क्योंकि मुझे
बाज़ारू कहने वालों
अपनी सोच को
एक दफे
फुरसत में बदल दो।
मोहलत में बदल दो।
मक़सद में बदल दो।
इश्क़ में बदल दो।
इबादत हो या नज़्म
प्रेम को मेरी तबियत में बदल दो।
मेरी तबियत को
अपनी तासीर में बदल दो।




Wednesday, 15 August 2018

झीलों किनारे इंसानी शहर

उन पानी की लहरों को
किनारा रोक देता है
क्या वो बौखला नही उठती होगी
उनकी मनमर्ज़ी के खिलाफ
वो एक बांध बन
उनकी हलचल को सिकोड़ देता है
वो वापस पलट
क्या बातें करती होगी
क्या कहती होगी
अगली लहरो को
जिनका अंजाम
इन रोकी गयी लहरो को पता है
क्या ये उन्हें
रोक दिया करती होगी
या फिर उन्हें भी
टकराने
छटपटाने
पीछे धकेल उठने
सिकुड़ने
आगे चले जाने को
रास्ता दे देती है
पर ऐसा क्यों
इंसान तो ऐसा कभी नही किया करते
वो तो कोशिश करने वालो को
आगाज़ पे ही
अंजाम का ख़ौफ दे
रोक देते है
बोखलाहट
सिकुडन
टकराव से कही ज़्यादा अहमियत पाती है
इंसानी मजहब में,
ये लहरे
इतनी बईमान क्यों है?
निर्दयी क्यों है?
क्या कहती होगी
लौटी हुई लहर
फिर, नई लहर से
या पुरानी से मिल के
सब एक दूजे का
दुख बाटते होंगे
या हिचकोलों में
नई लहर को
पैदा कर
उसे किनारे से
लड़ने
उठने
गिरने
पर उसको
थोड़ा ही सही
काट के आने की
एक हिदायत के साथ
सफर को भेज दिया करती होंगी
लहरों की ज़ुबाँ होती
तो क्या ये ऐसे ही होती
इंसान कही ज़ुबाँ दिमाग़ पा
बदमिज़ाज तो नही हो गया
बिना मैन्युअल
एक बड़ी मशीन का
बेढंगा मालिक तो नही हो गया
आज रात में
लहरो को रोशनी में देखा
तारों की नही,
तारे तो अब दिन में दिख जाते है
रातों को अब नसीब कहाँ,
वो कई रंग समेटे
शहर की मदमस्ती का
अपनी धुन में
किनारो से
मिलती
लहराती
उन्हें काटने में
लगी हुई थी।
हम इंसान
पहाड़ो की मौजूदगी
और नदियों के ज़ज़्बे से बेख़बर
खुद से
भिड़ के
लड़ के
टकरा के
कटने और काटने में लगे हुए थे।
कुछ तो कट रहा था
कही किनारा
तो कही इंसान
कुछ तो टूट रहा था
कही लहरे
तो कही इंसान।

Sunday, 12 August 2018

घर का तकिया और शहर नया

जब मैं रोती हूं
इस नए शहर में
अपना सा लगता है।
तकिया आंसू का सहारा बन
सब समा लेता है
आंखे हल्की हो
सूज सूज के
किनारा बन जाती है
एक धारी मिल जाती है
कानो से हो के
बालो में गिर के
तकिये तक अंजाम पहुँच
कहानी छुपा जाती है
एक किस्सा तकिये में
रुई संग सूख जाता है
तकिया पुरानी है
घर से लायी हुं
अपनी लगती है।

ख्वाब देखा
बिटिया बाहों में लिपटी
पिता के सीने में सिमटी
महफूज़ है
इस प्यार की तलब में
खोई सी बिटिया
अपनी लगती है
अब
ये तकिया अपनी लगती है।

मोहब्बत एक तय सफर है
या अंजाम है
इश्क़ मामूली तबियत है
या तासीर है
ऐसे काफिराना सवालो से हट के
दुनिया से डरने पे
पिता की ममता
माँ के पल्लू सा लगती है
अब तो ये सपना
अपना सा लगता है
पापा के साथ सेल्फी
उनसे दिल खोल सब कह जाना
सपना सा लगता है
अब ये सपना अपना सा लगता है।
तकिये पे राज़ दफन कर
हर दिन एक बिटिया का उठना
अपना सा लगता है।
मामूली सही
हर उठती आँख
खुलते लफ्ज़
चालो की तेजी
हाथो के इशारे
आवाज़ों की गर्मी
तुझे नए शहर में
अपने से लड़ते देखना
अपना सा लगता है।
ये खुद से याराना
बेशक़,
अपना ही लगता है।

हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...