ये कविता आज कल 'धक्कामार प्रतिमा गिराओ आंदोनल' की खबरों से उपजी है। इसमें ज़िक्र है पूर्णिया के अजीत सरकार का जो 15 साल लोगों की सेवा ऐसे किये कि उनकी कमी आज भी लोगों के आंखों से आंसू छलका देती है और उनका कातिल बाइज़्ज़त बरी हो नया इतिहास रचता है। और ज़िक्र है महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी का। इन्होंने एक इतिहास लिखा और अब आज का युवा जो हुजूम मात्र रह गया है, एक भीड़, जो आये दिन किसी भावनात्मक भाषा का शिकार हो किसी दम्भ में प्रतिमाओ को तोड़ते है। इससे क्या हासिल होगा या होता है ये शायद उनको भी नही पता।
ये कुछ नामों का ज़िक्र चिन्हात्मक है। वैसे अम्बेडकर, लेनिन और न जाने कौन कौन कुछ मृत कुछ ज़िंदा (कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, गौरी लंकेश आदि) इनका शिकार बनते रहते है।
एक सौ सात गोली खा के,
ये कुछ नामों का ज़िक्र चिन्हात्मक है। वैसे अम्बेडकर, लेनिन और न जाने कौन कौन कुछ मृत कुछ ज़िंदा (कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, गौरी लंकेश आदि) इनका शिकार बनते रहते है।
एक सौ सात गोली खा के,
दायीं तरफ लटका पड़ा
'सरकार' का मृत शरीर,
हाथों में नालीनुमा रस्ते से,
खून ज़मीं पे नदी बना,
अपने नए अस्तित्व की खोज में
बेजान ही नयी मंज़िल तलाश रहे थे,
एक सौ सात कारतूसों की
गड़गड़ाहट से जो शोर था
चिड़ियों ने भी उस शांति में
शोक नाद किया,
एक चपल पंखधारी भूरी सी
उड़ बैठी बगल में,
खोपड़ी के अधखुले नसों को
सिर टेढ़ा कर के देखती
उसने किसी को आवाज़ न दिया।
कभी ऐसे ही किसी ने अपना गुस्सा
अपनी तकलीफ की आग को
पानी की बौछार खातिर
एक लाठी को तोड़
बन्दूक की गोली से
'हे राम' में विलीन किया
तो कभी सिरमौर का उफान
और वचन निभाने खातिर,
साडी में लौह ह्रदय शिथिल सा हुआ
मूर्तियों में समापन हो जाते है
कुछ दिनों में फूलमाला आरती
विज्ञापन और ज्ञापन हो जाते है
कई अरसे सदियों बाद
एक नयी विचारधारा फिर
रुकी हुई सांसों टूटी हुई लाठी
अधखुले सिर से रिस्ते हुए खून की याद में
पांच फिट ऊँची बानी
प्रमाणिक माटी की अप्रमाणिक सी प्रतिमा को
फिर से अपने क्रोध की आग
बदले के ज़हर को
कदाचित शांत करने
उठा धकेल देते है,
टूटी लाठी फिर से तोड़ देते है।
अब क्या होगा ?
क्या फिर से खून बह निकलेगा
हे राम कराह उठेगा
या लौह महिला परुषार्थ को उठा झकझोर खड़ा कर देगी
या फिर वो आग शांत हो जाएगी।
या फिर यूँ ही कुछ चेहरे
हर सदी बनते रहेंगे
जिन्हें तुम असंख्य की तादाद में आ कर तोड़ सको
क्युकी तुम्हे इस लोकतंत्र ने
लाठी उठा के चलने का इतिहास दिया है
कोई लाठी लेकर लोकतंत्र ले आया
तुम उसी लाठी को धक्का दे
इतिहास की बैसाखी पे टिका प्रजातंत्र तोड़ सकते हो।
कई अरसे सदियों बाद
एक नयी विचारधारा फिर
रुकी हुई सांसों टूटी हुई लाठी
अधखुले सिर से रिस्ते हुए खून की याद में
पांच फिट ऊँची बानी
प्रमाणिक माटी की अप्रमाणिक सी प्रतिमा को
फिर से अपने क्रोध की आग
बदले के ज़हर को
कदाचित शांत करने
उठा धकेल देते है,
टूटी लाठी फिर से तोड़ देते है।
अब क्या होगा ?
क्या फिर से खून बह निकलेगा
हे राम कराह उठेगा
या लौह महिला परुषार्थ को उठा झकझोर खड़ा कर देगी
या फिर वो आग शांत हो जाएगी।
या फिर यूँ ही कुछ चेहरे
हर सदी बनते रहेंगे
जिन्हें तुम असंख्य की तादाद में आ कर तोड़ सको
क्युकी तुम्हे इस लोकतंत्र ने
लाठी उठा के चलने का इतिहास दिया है
कोई लाठी लेकर लोकतंत्र ले आया
तुम उसी लाठी को धक्का दे
इतिहास की बैसाखी पे टिका प्रजातंत्र तोड़ सकते हो।
4 comments:
बहुत उम्दा और सच्चाई से भरा हुआ लेख।
Bitter truth of so called Indian Democracy..!!
#Ultimate #Attempt..!!
Good job...... Keep it up
U rock Garima !! Too good :)
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