दिल्ली में कुछ की दरगाह ही होगी ये! नइ क्या?
ना ये एक कहानी है और ना ही इसे हक़ीकत मैं कहना चाहती हूं। क्युकी ये पर्दाबंद ज़िदगी है जो जवान हो चुके बच्चो से दूर बड़े और बड़ों की नज़र से अलग वो बच्चे जीने की चाह रखते है। पर हाँ, यह रह चुकी है कई कहानियों का हिस्सा। किसी की ज़िन्दगी का सबब तो किसी की मौज की दरगाह। दरगाह! दरगाह?
भीड़ इतनी जैसे चिल्लर का बाजार लगा हो
भीतर गलियों में,
मॉल में तो क्राउड होता है
'जेन्ट्री' वाला रश होता है।
रिक्शा गाड़ी
बड़ा बूढा
लड़का लड़की
ना ना अच्छा हाँ हाँ
रिक्शे पे जाने वाली कई
सवारी।
मसाला चाय पेंट दुकान
बैंक पुलिस सबका
इंतज़ाम
दुकानों पे चढ़ता उतरता
गट्ठर बोरा भर सामान
उसी के आगे
चांदनी चौक का मसाला खादान।
ऊपर घर भी थे
एक लम्बाई में
सब जुड़े जुड़े थे।
जैसे बनिया लाला का
परिवार अलग अलग कमरों में
एक छत में रहता हो।
पूरा का पूरा कुनबा
यही बसता हो।
क्या प्यार होगा
क्या भाईचारा होगा
इस गली में तो
हर आने वाला दुलारा होगा।
सारी औरतें मिल के
खिलाती होंगी
दुआएं मिल खूब लाड लड़ाती होंगी।
ये समाजशास्त्रियों को यहाँ पढ़ना चाहिये
अलग अलग मालिक
और एक छत में रहने का
हुनर सबको बताना चाहिए।
पर ध्यान दो तो ये घर अलग था
एक ही खिड़की और
घर संख्याबद्ध था।
कुछ वहां से झांक रही थी।
शाम होते होते
दुकानें बंद हो गयी,
बनिया लाला बैंक मुनीम
सब बस्ता लिए ऊपर घर न गए।
लाइट जली नीचे भी और ऊपर खिड़की में भी,
दिन में डूबी सी आँखें तेज़ सुनार हो गयी।
हंसी चीख मसालों की छींक बन गए
दिन के मज़दूर रात में शेख बन गए।
घर की औरतें वैसे ही आदमी के इंतज़ार में
बस 'बाप' नहीं किसी भी 'पडोसी' के प्यार में
कोई मन्नत ले कर आता
बड़ी दुआ में बड़ा प्रसाद चढ़ाता
और खुश हो के
या फिर और ख़ुशी की उम्मीद में
खिला सा बाहर आता।
इनमे भी बटवारा है
अमीर हर जगह मुँह मारा है
इस गली में तो
सबकी अपनी हिस्सेदरी है।
मैं डरी थी उनको देख कर
मेरे जैसी पर वो रंडी थी।
मुझे भी किसी ने कहा था
'रंडी रोना' मैंने भी सुना था।
देखना चाहती थी
वो कैसे रोती है
मुझसे अच्छा या बुरा या मेरे जैसा ही रोती है।
वो तेज़ थीं
मज़हब की पक्की थीं
एक कॉर्पोरेट वाली की तरह
एकदम कामतोड़ औरत की तरह
खुद्दार कट्टर मज़हबी की तरह
उनको दम भर काम आता है
अपना पेट पालना आता है
पर उनका नंबर है नाम नहीं
उनका काम है ईमान नहीं।
अच्छा, स्वच्छ भारत कब आएगा
अच्छा भारत नहीं, तो स्वच्छ कब आएगा
इनका भी कोई नेता है फोटो में क्या
इनमे से कोई तो होगी
उसकी भी फोटो खिंचवा दो
गाँधी की एक आंख का चश्मा ही दे दो
दूसरी का आधा भारत
चोरी-छुपे गाहें-बगाहें
यही से गुज़रता है।
ख़याल बहुतेरे है
आयाम किनारे भी बहुत
पर इतिहास की इन दुलारी को नीलामी का डर क्या
हम जैसे इज़्ज़त वालों की रखवालियों को
उन घर में बसती मोहब्बत की समझ क्या
मैं उस दिन डर के वापस आयी
और अब हर दिन 'अच्छे लोगों' का
मुखौटा पढ़
अपनी तरह के डरपोकों की
एक गैंग बना रही हूँ।
वहां न जाने की नसीहत का
खाका सजा रही हूँ।
ना, मैं बिल्कुल भी कोई साहित्यिक रचना करने की कोशिश में नही, जो सबको पढ़ के अच्छा लगे या पसंद आ जाये। बस समझ नही पा रही कि इसे कैसे लिखूं। पर लिखना तो है। लिखना है खुद की एक और असलियत के बारे में। जो सिर्फ उनके गलियारों से गुज़रते मेरे सामने आ खड़ी हुई। कितनी बईमान हूँ, कितनी दिखावटी और कितनी नासमझ।
मेरी उलझन और मेरा अन्तर्द्वन्द मैं आप तक उसी अलह्ड़ रूप में दिखा पाऊं जैसे वो मुझमे उछल कूद मचा रहा है तो मैं सफल मानूंगी इस लेखनी को।
मेरी उलझन और मेरा अन्तर्द्वन्द मैं आप तक उसी अलह्ड़ रूप में दिखा पाऊं जैसे वो मुझमे उछल कूद मचा रहा है तो मैं सफल मानूंगी इस लेखनी को।
भीड़ इतनी जैसे चिल्लर का बाजार लगा हो
भीतर गलियों में,
मॉल में तो क्राउड होता है
'जेन्ट्री' वाला रश होता है।
रिक्शा गाड़ी
बड़ा बूढा
लड़का लड़की
ना ना अच्छा हाँ हाँ
रिक्शे पे जाने वाली कई
सवारी।
मसाला चाय पेंट दुकान
बैंक पुलिस सबका
इंतज़ाम
दुकानों पे चढ़ता उतरता
गट्ठर बोरा भर सामान
उसी के आगे
चांदनी चौक का मसाला खादान।
ऊपर घर भी थे
एक लम्बाई में
सब जुड़े जुड़े थे।
जैसे बनिया लाला का
परिवार अलग अलग कमरों में
एक छत में रहता हो।
पूरा का पूरा कुनबा
यही बसता हो।
क्या प्यार होगा
क्या भाईचारा होगा
इस गली में तो
हर आने वाला दुलारा होगा।
सारी औरतें मिल के
खिलाती होंगी
दुआएं मिल खूब लाड लड़ाती होंगी।
ये समाजशास्त्रियों को यहाँ पढ़ना चाहिये
अलग अलग मालिक
और एक छत में रहने का
हुनर सबको बताना चाहिए।
पर ध्यान दो तो ये घर अलग था
एक ही खिड़की और
घर संख्याबद्ध था।
कुछ वहां से झांक रही थी।
शाम होते होते
दुकानें बंद हो गयी,
बनिया लाला बैंक मुनीम
सब बस्ता लिए ऊपर घर न गए।
लाइट जली नीचे भी और ऊपर खिड़की में भी,
दिन में डूबी सी आँखें तेज़ सुनार हो गयी।
हंसी चीख मसालों की छींक बन गए
दिन के मज़दूर रात में शेख बन गए।
घर की औरतें वैसे ही आदमी के इंतज़ार में
बस 'बाप' नहीं किसी भी 'पडोसी' के प्यार में
कोई मन्नत ले कर आता
बड़ी दुआ में बड़ा प्रसाद चढ़ाता
और खुश हो के
या फिर और ख़ुशी की उम्मीद में
खिला सा बाहर आता।
इनमे भी बटवारा है
अमीर हर जगह मुँह मारा है
इस गली में तो
सबकी अपनी हिस्सेदरी है।
मैं डरी थी उनको देख कर
मेरे जैसी पर वो रंडी थी।
मुझे भी किसी ने कहा था
'रंडी रोना' मैंने भी सुना था।
देखना चाहती थी
वो कैसे रोती है
मुझसे अच्छा या बुरा या मेरे जैसा ही रोती है।
वो तेज़ थीं
मज़हब की पक्की थीं
एक कॉर्पोरेट वाली की तरह
एकदम कामतोड़ औरत की तरह
खुद्दार कट्टर मज़हबी की तरह
उनको दम भर काम आता है
अपना पेट पालना आता है
पर उनका नंबर है नाम नहीं
उनका काम है ईमान नहीं।
अच्छा, स्वच्छ भारत कब आएगा
अच्छा भारत नहीं, तो स्वच्छ कब आएगा
इनका भी कोई नेता है फोटो में क्या
इनमे से कोई तो होगी
उसकी भी फोटो खिंचवा दो
गाँधी की एक आंख का चश्मा ही दे दो
दूसरी का आधा भारत
चोरी-छुपे गाहें-बगाहें
यही से गुज़रता है।
ख़याल बहुतेरे है
आयाम किनारे भी बहुत
पर इतिहास की इन दुलारी को नीलामी का डर क्या
हम जैसे इज़्ज़त वालों की रखवालियों को
उन घर में बसती मोहब्बत की समझ क्या
मैं उस दिन डर के वापस आयी
और अब हर दिन 'अच्छे लोगों' का
मुखौटा पढ़
अपनी तरह के डरपोकों की
एक गैंग बना रही हूँ।
वहां न जाने की नसीहत का
खाका सजा रही हूँ।
Comments
भावों की अभिव्यक्ति कमाल एक रचना में अनगिनत बातें.. बहुत बढिया..
kul milakar aapke blog par yeh rachna sabse achhi lagi.
kya 'darpokon ki gang' sach me darpok hai?