Sunday, 7 June 2015

मैं हारना चाहती थी

मैं हारना चाहती थी।
ठोकर खा के,
थक हार कर गिरना चाहती थी।
पता था हारने का,
न जीतने का,
fail होने का,
पास न होने का रिजल्ट क्या होगा।
पर ना जाने क्या देखना चाहती थी।

ये जान भी तब पायी
जब सब मुझे हारा हुआ कहने लगे
शायद मैं उनके लिए ही हारना चाहती थी
पता था वो छोड़ के भी ना छोड़  पाएंगे मुझे
इसी टूटे जुड़े कच्चे धागो से
खुद को रेतना चाहती थी।

सब पता है
फिर भी
हर दिन
गिर रही हूँ मैं।
मैं उनके झुकने का सबब चाहती थी।
क्या हक़ मुझे
उनको रुलाने का?
मैं तो बस
अपने होने का फरक चाहती थी।
मैं हारना चाहती थी।




1 comment:

जमशेद आज़मी said...

बहुत ही अच्‍छी रचना। पर जब सभी हराना चाहते हों तो हारने की बात सोचना भी क्‍यों....।

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