Monday, 22 September 2014

कपड़ा मेरी पहचान कहता है
मैं कौन हूँ ये कहानी बयान करता है
सर ढक चल जाये जो एक औरत काला रंग क़ौम की पहचान कहता है
दूजी ओर रंगबिरंगी चूनर उनके मजहब की बात कहता है
दाढ़ी राखी है दोनों ने.… तरीका-ए-ख़ास उनका कबीला खुल-ऐ-आम करता है
चाँद दोनों ने देखा … मक़सद  अलग बस है
करवाचौथ हो या ईद की रात
ये अपने अपने मक़सद से चाँद को बाट रखता है
सजदा सब करे उसका,
दीवारें बनती एक ही औजार से है,
मन की मुरदे भी कुछ ख़ास अलग नहीं,
नक़्शा बनावट का दीवारों का मज़हब सरे आम  करता है
ये कपडे, बनावट, लिखावट मेरी पहचान कहता है
जो हूँ मैं वो छुपा, मुझे नए रंगो में गढ़ता है
मुझे इन्सान न हो के, किसी जात धरम का बंदा वो कहता है

आज शहरों में हटते भेद भाव से डर
धरम का सिपाही 'लव जेहाद' कहता है
लड़की हो बस, किसी भी धर्म की हो
उसकी इज़्ज़त लूट ये 'शिखंडी'
खुद को धर्म का ठेकेदार कहता है.
इनसे तो अच्छा है कि  ये कपडा मेरी पहचान कहता है.



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