बिना नियम-कायदे का खेल
मुझे आपसे रूबरू होने का समय नहीं पता ,इसलिए अपना कुछ अनुभव इस पेज के जरिये आपके लिए छोड़े जा रही हू। यह अनुभव आपका थोडा समय लेगा इसीलिए वीकेंड का टाइम चुना कि शायद शाम की चाय की चुस्की के साथ हम भी रूबरू हो पाए .…मेरी डायरी के कुछ पन्ने आपके हाथो में.….
ज़िन्दगी उलझी हुई डोर सी लगने लगी थी और मैं उसमे फंसी हुई पर आहिस्ता-आहिस्ता उसके धागे को खोलने की कोशिश में लगी थी। कभी धागे का एक सिरा खीचने से गांठे खुद-ब-खुद सुलझ जाती तो तसल्ली मिलती और कभी कभी लाख जतन के बाद भी हल्का सा खिछाव कुछ नयी गांठे दे जाता, जो देखने में बड़ी ही मामूली जान पड़ती पर उस डोर से जुडी हर एक डोर को खुद में उलझाने या फिर अटकाने की सारी खुबिया रखती । बस इन्ही उलझनों को सुलझाने में मेरा समय कट रहा था। कभी जोश से भरी हुई पतंग की तरह हवा में उड़कर आसमान के पार जाना चाहती , तो कभी परेशानियों में खुद को उलझा पाकर अकेला और हारा हुआ महसूस करती इन परेशानियों और उलझनों को अपनी परीक्षा की घडी का मापदंड मानकर इस भरसक प्रयास में लगी हुई थी कि बस कुछ भी हो जाए हारना नहीं है, और गर हार गए तो रुकना नहीं है। एक दिन शाम में घर की बालकनी में पड़ी कुर्सी को अपनी तरह अकेला पाया तो चाय के एक कप और रेडियो के साथ उसका साथ देने बालकनी पर चली गयी। मौसम भी अच्छा था, हवाएं तेज़ थी, पुराने गाने गुनगुनाते गुनगुनाते बहुत दिन बाद मौका देख दिल ने एक बात कही और मैं बिना किसी न नुकुर के झट से तैयार हो गयी और निकल गयी अपनी मनपसंद जगह 'इंडिया गेट' के लिए।
आज कुछ नया नहीं था, बल्कि जून की गर्मी इंडिया गेट को और तपा रही थी, हवाएं थी तो पर पसीने अपनी जगह बना ही ले रहे थे। पर मेरा दिल खुश था, मुस्कराहट होठो का साथ पाकर खुश थी आज। मैं अकेले सड़क के किनारे खुद को फ्रीडम की परिभाषा समझाने में लगी थी। तबी मेरी नज़र एक छोटी सी बच्ची पर गयी जो मटमैले रंग का कपडा पहने हुए थी, बाल बिखरे हुए और मिटटी से सनी हुई थी। सामने कुछ खाने का सामान एक बोर पर बिछाए बैठी आते - जाते लोगों को ताक रही थी। न ही उसे किसी ग्राहक का इंतज़ार था और न ही कोई ऐसी कोशिश। अल्थी- पल्थी मारे न जाने क्या बडबडा रही थी। सामने से एक लड़के को खुद की तरफ़ आता देख वह सतर्क होने लगी. लड़का कुछ २३-२४ साल का रहा होगा , ठीक ठाक लग रहा था , शर्ट- पैंट जूते, एक दम डेंट पेंट। उसने चिप्स का पैकेट उठाते हुए दाम पूछा, और वही बैठ गया ज़मीन पर लड़की के पास।
आज कुछ नया नहीं था, बल्कि जून की गर्मी इंडिया गेट को और तपा रही थी, हवाएं थी तो पर पसीने अपनी जगह बना ही ले रहे थे। पर मेरा दिल खुश था, मुस्कराहट होठो का साथ पाकर खुश थी आज। मैं अकेले सड़क के किनारे खुद को फ्रीडम की परिभाषा समझाने में लगी थी। तबी मेरी नज़र एक छोटी सी बच्ची पर गयी जो मटमैले रंग का कपडा पहने हुए थी, बाल बिखरे हुए और मिटटी से सनी हुई थी। सामने कुछ खाने का सामान एक बोर पर बिछाए बैठी आते - जाते लोगों को ताक रही थी। न ही उसे किसी ग्राहक का इंतज़ार था और न ही कोई ऐसी कोशिश। अल्थी- पल्थी मारे न जाने क्या बडबडा रही थी। सामने से एक लड़के को खुद की तरफ़ आता देख वह सतर्क होने लगी. लड़का कुछ २३-२४ साल का रहा होगा , ठीक ठाक लग रहा था , शर्ट- पैंट जूते, एक दम डेंट पेंट। उसने चिप्स का पैकेट उठाते हुए दाम पूछा, और वही बैठ गया ज़मीन पर लड़की के पास।
मैं न जाने क्यों अपनी फ्रीडम की परिभाषा भूल सड़क के दुसरे छोर पर रूककर उन्हें देखने लगी। लड़की ने २० रूपये, तेज़ आवाज़ में दाम बताया। लड़के ने कहा,कितने है तुम्हारे पास और पर्स निकालने लगा और उसका नाम, पढाई वगैरह पूछने लगा। उस छोटी सी बच्ची की बेधड़क और बेबाकी देख मैं दंग थी। यह मिट्टी उसे खेलने से नहीं लगी थी, उसके शराबी बाप ने उसे कुछ देर पहले दूकान पर बैठने से इनकार करने के लिए मारा था। उसे स्कूल नहीं जाने दिया था। पर उस छोटी सी लड़की के चहरे पर कोई शिकन नहीं था, बस कुछ चोट के निशाँ और दर्द की वजह से चहरे पर आंसू के दाग जो मिट्टी के साथ मिलने के बाद सूख कर अपना होना बता रहे थे। उस नवयुवक ने उससे सारे चिप्स टॉफ़ी खरीद ली और बदले में पैसे दिए और ३० रूपये और दिए, थोड़ी दूर पर प्लास्टिक का बैट बॉल बिक रहा था उन्हें खरीदने के लिए। लड़की पीले रंग का बैट और लाल रंग का बॉल खरीद कर ले आई। अपने पैसे उसने अपने झोले में डाले और लोहे की रॉड से बनी बाउंड्री लांघ कर घास पर क्रिकेट मैच की तयारी शुरू कर दी दोनों ने। वो छोटी लड़की जो कुछ हो रहा था वो सब समझने की कोशिश में लगी थी। पर अपने नए दोस्त की हर बात पर जिस तरह सर और हाथ हिला रही थी कि उसे क्रिकेट के सारे रूल्स समझ आ रहे थे, उसकी ख़ुशी और उत्सुकता साफ़ दिख रही थी।
देखते ही देखते एक दो लोग और कई सारे छोटे बच्चे भी इस खेल में शामिल हो गए थे। उन बच्चो की खिलखिलाहट और एक भी कायदा न पता होते हुए भी हर बॉल पर छक्का मारने का प्रयास मुझे अन्दर ही अन्दर हिला सा रहा था। मैं उनके संग खुल कर हसना चाह रही थी। जैसे वो बच्चे बॉल को बैट से टेढ़ा मार कर खुद की गलतियों और बेवकूफियो पर हस रहे थे ऐसे ही मैं अपनी ज़िन्दगी में हुई गलतियों पर हस कर उनसे कुछ सीख कर या न सीख कर खुश होना चाह रही थी। आउट होने पर भी खुश होना चाह रही थी। सारी परिभाषाएं भूल जाना चाहती थी। वो छोटी सी लड़की अपनी सारी चोट भूल गयी थी और उन आसुओ के निशाँ पर मिट्टी के कई नए निशाँ बन चुके थे, जो उसकी हसी को और खूबसूरत बना रहे थे।उसने उस बीच न तो झोले की तरफ देखा और न ही बोरे की तरफ जिस पर वो सारे बिके हुए चिप्स और टॉफ़ी जस के तस पड़े थे।
ढलते सूरज और इंडिया गेट को रात की बाहों में जाता देख यह हसते कदम भी ज़िन्दगी के दुसरे पड़ाव को चलने लगे। उनके बिना किसी नियम कायदे- क़ानून वाले खेल में ऐसी रम गयी कि कब इंडिया गेट तेज़ रौशनी से स्याह चादर में समा गया और पीली सफ़ेद बत्तियो वाला नेकलेस पहन और खूबसूरत बन गया, पता ही नहीं चला। यह जानते हुए भी कि कल उसे फिर यही दूकान पर बैठना होगा, हो सकता है कल फिर वो स्कूल न जा पाए या फिर से मार पड़े उसे अपनी मर्जी जताने के लिए। उसे ये भी पता है की जैसा आज हुआ रोज नहीं होता कोई उसका सारा सामान नहीं खरीदेगा ऐसे और न ही उसके साथ खेलेगा, ये तो छोड़ो ठीक से बात भी नहीं करेगा। कल तो उसे और बुरा लगेगा जब वो यहाँ अकेले बैठेगी और बिता कल याद आएगा। इन सारी दुनियावी बातो से बेफिक्र वो आज की ख़ुशी और अपने बनाये रनों पर flaunt करते हुए वो छोटी बच्ची भी अपना झोला उठाये, बिना पैसो की फिक्र किये उछलते - कूदते कही तो गायब हो गयी। बच गयी मैं अकेली, पर जैसी आई थी वैसी नहीं। आज इन नन्हे- मुन्हो और उस नवयुवक की जिंदादिली ने मुझे जीने के कई तरीके सुझा दिए। हर पल हसने का फलसफा दे दिया। आज रात उसके पास आसमान में तारो को बताने के लिए खुद की अचीवमेंट का अच्छा स्कोर बोर्ड था जिसमे गलतियों के लिए कई रेड मार्क्स और साथ में उनके लिए ढेर सारे इमोटिकॉन्स कोई मुस्कुराते हुए, कुछ आँख मारते हुए तो कुछ किसी मस्त वाली गलती पर मुह फाड़ के हसते हुए और कुछ सर पर हाथ मारते हुए जैसे हम 'ओ तेरी' बोलते हुए किया करते है.…अरे , कुछ ऐसा ही मेरा एक दोस्त मुझे 'गम्मो' बोलते हुए भी तो करता है।
हह.… उस बच्ची के बारे में सोचते हुए मैं अपनी ज़िन्दगी के कुछ खिलखिलाते पलो को याद करते घर पहुच गयी ये तब पता चला जब गली के पहले वाली डेरी पर नज़र जाते ही याद आया की घर के लिए दूध खरीदना था। मैं भी बड़े इत्मीनान से सामान खरीद कर गली में बढ़ गयी। मैं अब भी उन्ही हसते कदमो के साथ कदम ताल कर रही थी। आज मुझे न ही डर लग रहा था और न ही उलझन। था तो बस खुद के होने का एहसास, हंसी ख़ुशी और मुस्कुराती ज़िन्दगी। मुझे इस बिना नियम कायदे क़ानून का खेल बहुत पसंद आ गया था। बस घर पहुच कर मैंने भी सारी उलझनों की एक पोटली बांधी और जोरो का छक्का मारा, जिससे वो बाउंड्री क्रॉस कर जाये, न कोई फील्डर न कोई बॉलर।
अभी मैं उसी बालकनी में पीली रौशनी में स्ट्रोंग कॉफ़ी की चुस्की के साथ ठंठे झोको का लुत्फ़ उठा रही हु और आपसे रु-ब-रु हो रही हू।
Comments
Kaafi acha likha hai...
- शकील अख़्तर
सुरेंद्र कुमार अधाना (मेरठ)
Aapka bahut bahut dhanyavad humse rubaru hone k liye. :-) :-)
Prithvi raj....