Wednesday, 5 August 2020

यूँ ही....

न लम्हों में हूँ न रास्तों में
मैं ठहरी हूँ और बादल चलता जाता है
दिन बीत जाता है
सुबह धूप शाम बदली
कभी बौछार है बस
मैं हँसती हूँ और दिल रूठ जाता है
हल्की हरारत चढ़ा दो कोई
बुखार में पारा ज़्यादा चढ़ जाता है
मुझे इश्क़ का एहसास करा दो कोई
इश्क़ सवार हो तो मामला बिगड़ जाता है
न क़ैद हूँ न आज़ाद हूँ
न फिक्र हूँ न बेजान हूँ
न बंदिश हूँ न अरमान हूँ
मैं 'देसी' बाशिंदा नही
तेरा मेरा एक ख़याल हूँ.

No comments:

  मेरे पास हर टुकड़े पर उसे पूरा करने की खता करने वाला एक शख़्स मौजूद था    मौशिक़ी हो या हिमाक़त  शिक़वा हो गया माज़रत  हसना हो सखियों संग ...