किसी का जाना और उस मौके पर आंसू छलकना हर आँख के दिल-ओ-दिमाग की अपनी यात्रा का परिणाम होता है. उसके लगाव, स्वार्थ, एहसास, अभाव, आदत, साथ इन सबकी मिली जुली अभिव्यक्ति होती है. लम्बा साथ भीगी आँखों से विदाई करते है ये कोई पैमाना नही. और कम समय का साथ केवल संदेह, ख़ोज, उत्सुकता, शैशव काल का प्रतीक हो, ये भी तय नही है. ऐसे मौके पर हम अपनी भावनाओ को शब्द का साथ देते है. कुछ औपचारिक प्रतिबद्धताओं में भाव विभोर हो रहे होते है और अपनी कार्यशीलता का प्रमाण पाने की लालसा लिए सब कुछ सिद्ध करते है, जो कि स्वाभाविक और वांछनीय है. तो कुछ इतने लम्बे वक़्त से व्यक्तिविशेष और संगठन दोनों के साथी होते है कि ये सिर्फ एक दिन होता है जहाँ इन्हें अपनी बातें यादों के नकाब में पेश करनी होती है, कुछ का रिश्ता पारिवारिक हो जाता है तो वो इस विदाई को एक पड़ाव स्वरुप देखते है. पर एक शिक्षक को अपने जीवन में साथी, सिस्टम, शोध के अलावा एक खूबसूरत साथ मिलता है विद्यार्थी और शोधकर्ता का. उनके लिए एक अच्छा गुरु उनका जीवन संवार देता है. उनका भावुक होना गर स्वार्थ है तो वह सबसे खूबसूरत निस्वार्थ स्वार्थ होता है. जिसका होना इस रिश्ते की मर्यादा को उंचाई प्रदान करता है.
मैं, हाल ही में, एक विदाई समारोह का हिस्सा रही. विदाई (सेवानिवृत्त) जिनकी थी वो आदरणीय है. उनके बारे में बात शुरू करूँ तो चंद किस्से है, और मैं आदतन बिना किस्सों के अपनी बात पूरी नही कर पाती. किस्सागोई का हुनर नही है मुझमे, पर बतियाने की कला और हिम्मत खूब है, और शायद फुरसत भी. मैं इन्हें पिछले दो वर्षों से जानती हूँ. उसमे से भी यदा कदा ही हमें मिलने या बात करने का अवसर मिला. तो किस्से कम ही है. लिखने में कम और पढने में आसानी. तो, मैंने २०१८, २१ जून को पहली बार इस खूबसूरत शहर में कदम रखा. रात की ट्रेन का सफ़र और एक नयी दुनिया में प्रवेश पाने के लिए साक्षात्कार. मैं सिर्फ नए शहर में ही नही जा रही थी, बल्क़ि बहुत कुछ पहली बार होने वाला था अगर इस सफ़र का अंजाम सकारात्मक हो जाता तो. पहली बार ऐसे जगह जा रही थी जहाँ कोई पहचान का नही था; मेरी पहचान वालों के पहचान के थे ज़रूर, पर ट्रेन के सफ़र की शुरुआत में ही सबने अपना दरवाज़ा बंद कर लिया था. विद्यार्थी से शोध विद्यार्थी तक का सफ़र तय कर चुकी थी; अब मेज के दूसरी तरफ बैठनें की बारी थी, पहली दफे नौकरी करने जा रही थी, शादी करने जा रही थी, समाज से एक जंग छेड रखी थी, छोटी सी ही सही. कुछ चंद लोगों की इज्ज़त दांव पे लगी थी, कुछ का आत्मसम्मान और कुछ के सपने. इन सब में, झीलों पहाडो की गोद में, मैं इस शहर पहुची. उसी दिन शाम की ही वापसी की ट्रेन थी. साक्षात्कार देर से शुरू हुआ. डर ने सबसे ज्यादा साथ दिया था इस दिन मेरा. उस कमरे में जाने से पहले मैं डरी थी, कन्फ्यूज्ड थी. आखिरी में, हमे बुलाया गया, महिला अध्ययन विषय के लोगों को. इसके साथ ही दरख्वास्त है आपसे कि इस विषय के बारे में गूगल की सहायता ले ले क्यूकी अधिकतम पाठक साथी इस विषय से अनजान होंगे. खैर, बात जिस बात पे शुरू हुई उसी पर आते है. इंटरव्यू के दौरान मैं पहली बार सर से मिली वो मेरे सामने बैठे पांच अकादमिक विद्वानों में से एक थे. मैं ऐसी हडबडाई पर आत्मविश्वास का चोंगा पहने जवाब देने का भरसक प्रयास कर रही थी. जब कमरे से बाहर निकली तो सिर्फ स्टेशन पहुचने की जल्दी थी. जैसे-तैसे भाग के ट्रेन पकड़ी. फिर सिलसिला हुआ परिवार से बात कर के बताने का कि इंटरव्यू कैसा गया? नौकरी मिलेगी या नही? और मैं कहने लगी कि बस मैं चाहती हूँ कि वो जो प्रोफेसर बैठे थे वहां, वो मेरे जवाब से संतुष्ट हुए हो. क्युकी नौकरी मिलेगी या नही ये किसी को पता नही होता. लोगों ने बहुत डरा दिया था जुगाड़ के नाम पर. तो अपना चांस पहले से ही शुन्य माने मैं सिर्फ अपनी बौद्धिक सफलता की कामना करते हुए दिल्ली पहुची. २६ जून को पता चला कि मेरा चयन हो गया और तब एक अलग ही उत्साह और बदलाव में झूल रही थी. जब नौकरी ज्वाइन की और कुछ दिन के बाद मैंने किसी मीटिंग के दौरान उन्ही प्रोफेसर को देखा तो मैं ख़ुशी से उत्साहित हो गयी. मैंने सबसे पहले अपने मित्र और अब मेरे पति को फ़ोन कर के बताया कि वो प्रोफेसर इसी विश्वविद्यालय में है. आते ही पाठ्यक्रम बनने का काम सौपा गया मुझे और उनके पास कई बार जाना पड़ता था क्युकी उनके अधिकार क्षेत्र में यह काम आता था. जहाँ सब मुझे कंफ्यूज और मिसलीड कर रहे थे वही एक व्यक्ति मुझे सीधे किताबों, नियमावली बता कर काम करने को कह रहे थे. मुझे ज़रूरी कागजों की फोटोकॉपी मुहैया करायी उन्होंने. जहाँ सब मुझे कोई मेरे कपडे, बात करने के अंदाज़, जाति, स्थान से भांप रहे थे, वो एक ऐसे व्यक्ति थे जो मुझे मेरे पद पर सुनिश्चित होने के बाद उस कार्य को कैसे बेहतर और नियम के साथ करे, इसमें मदद कर रहे थे. पर सिर्फ उन्होंने ये आसान रास्ता चुना था इसलिए ही इतने कम समय के साथ में भी उनका जाना मेरे लिए बहुत दुखद है. क्यूकि मैं स्वार्थी यही सोचती रही कि अब पहली मंजिल का वो कमरा, जहाँ मैं अपनी हर समस्या लिए पहुच जाती थी, अब मेरे लिए नही है. उन्होंने मुझे मार्गदर्शन के साथ तसल्ली, हिम्मत, सुकून भी अता की. ऐसे कई किस्से हैं जिन्हें मैं और मेरा परिवार ता-उम्र याद रखेगा.और उस दिन पता चला कि बहुत है मेरे जैसे. सबने वहां उस दिन अपनी बातें कही, मैं नही कह पाई. मैं मेरी दुनिया में आपसे रूबरू हो रही हूँ.
कार्यक्रम के आखिर में उनका भाषण था, उनका ३६ साल का कार्यकाल समाप्त हो रहा था, उनके लिए न जाने कितनी यादें थी उस दिन समेटने को, साझा करने को और उन्होंने उस दिन भी उतने ही अनुशासन से गरिमामय अभिव्यक्ति की. सीख तो कई है इन दो सालों की यादों से, पर एक सीख पुख्ता हो गयी उस दिन. बचपन से सुनती आयी किअकेले तुम क्या कर लोगी? सब तो ऐसे ही है. ऐसे ही चलता है. कभी खुल के तो कभी गुस्से से इस बात का विरोध करती रही. पर अब यह बात पक्की हो गयी इस दो साल में कि आप अकेले बहुत कुछ कर सकते है. आप सिर्फ अपना काम करें. आप का व्यवहार, आपके मूल्य लोगों के जीवन में गहरा प्रभाव छोड़ते है. ये मूलभूत बात खुद समझनी होती है. हमारे घर वाले ये बताना अक्सर भूल जाते है. भूल ही जाते होंगे, वरना डरपोक तो नही बनायेंगे अपनी अगली पीढ़ी को, हैं न! मैंने उस दिन अपने दिल की एक और बात सुनी, उनसे जूनियर साथी की तरह नही 'गरिमा' की तरह मिली. उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया. उन्होंने अपना हाथ मेरे सिर पर रखा तो आंसू फिर रुक नही पाएं. और मैं "professionally act" नहीं कर पाई. पर मैं अपने छोटे कद और पद से खुश हूँ वरना ये आशीर्वाद न मिल पाता वैसे.
ये आशीर्वाद ऐसे क्यों इतना ज़रूरी सा लग रहा मेरी बातों में इसक पीछे भी कहानी है. सुना दूँ? तो सुनिये, मैं राजनितिक परिवेश में पली बढ़ी. बड़े बड़े नेतागण से लेकर कार्यकर्ता सबके पैर छूने की ट्रेनिंग है बचपन से. बडी हुई तो इससे एतराज़ होने लगा पर घर से बाहर निकल कर ही इससे छुट्टी मिली. फिर तय किया कि पैर छूने के पीछे के कारण समझूंगी और फिर मैं तय करुँगी किसके चरण इस योग्य है. ये आशीर्वाद मेरे परिवार की परंपरा का हिस्सा नही था ये मेरा सौभाग्य था. मैंने चुना है इसे. शायद इसलिए शब्द में पिरो रही हूँ. क्युकी मैंने कहा न आपसे, मनुष्य मूलतः स्वार्थी होता है, और मैं बेशक़ उनमे से एक हूँ.
मैं आपसे इसे क्यों बता रही हूँ? मैं पहली बार देख रही हूँ इसलिए, ये तो एक नियम है नौकरी का! बिलकुल सही, पर आप जब अपने दिल के सुकून के लिए करते है तो वो एक मौका खास होता है. पता है, सर ने आखिरी में अपने परिवार के साथ गीत गाया, और सब ने गुनगुनाया पर बेटियों ने पूरा साथ दिया. इस आखिरी पंक्ति के बाद और क्या जानना रह जाता है एक आन्दोलनकारी, अनुशासित, ज्ञानी, संवेदनशील, वाक्पटु ह्रदय और मष्तिस्क के बारे में, है ना!
शुक्रिया! मुस्कुराते रहे!