Friday, 17 November 2017

ये बात है, तकरार नहीं

तुम मुझे माटी समझ रौंदों
ये तुम्हारा फ़र्ज़ होगा। 
मिट्टी की उड़ान को 
सुबह-ओ-शाम पानी डाल 
ज़मीं के सीने में सुला देना 
इससे भी ख़फ़ा नहीं,
ये तुम करोगे ही। 
मैं तो वो घास हूँ 
जो हर सतह पर उग आएगी 
तुम्हारे चाहे अनचाहे,
तुम बिना काम का समझ 
उखाड़ फेंकना,
या सुन्दर कलाकारी जो मेरे साथ जन्मी है 
उसे तराश घर आँगन सजाओ,
ये भी तुम्हारा फ़र्ज़ है। 
तुम ये करोगे भी 
क्युकी तुमने यही सीखा है 
और ज़िम्मेदारी भी ली है। 
पर तुम अब चाहते हो और तगड़ी पकड़ 
तुम मुझे डामर में लपेट 
बड़ी बड़ी मशीन से 
सुन्दर सपाट बिछा देना चाहते हो। 
उस पर सफ़ेद काली पीली पट्टी बना,
'उनको' रास्ता बताना चाहते हो। 
एक स्मारक बनेगा तुम्हारा 
क्युकी तुमने अपनी मेहनत से 
मुझे एक छोटी गली से 
बड़ी पक्की मेटल रोड बनाया है। 
रोड तुम्हारे नाम की होगी 
वो सफ़ेद पट्टी मेरी सीमा 
और घुमावदार निशान 
आने वाली उड़ान की इच्छा रखे बचपन को 
तुम्हारे सधे सधाए रास्तों पर चलने का रास्ता बताएँगे।  
हाँ, तुमने ही मुझे आज़ादी दी। 
पर वो अब आज़ादी की परिभाषा में उड़ान शामिल है, 
सवाल शामिल है,
उनकी खोज की लालसा              
और उनके जवाब भी आखिर में शामिल है। 
मेरे अस्तित्व से गठबंधन है अब उसका 
और मैं ये वादा करती हूँ 
किसी पर ये आज़ादी थोपूंगी नहीं,तुम्हारी तरह। 
हिम्मत ज़रूर दूंगी 
सपने देखने की, 
जैसे तुमने मुझे दी है 
और आज भी दे रहे हो। 
पर हाँ, अगर मैं घास हूँ, तो 
'पाश' की घास से मुकाबला करना मेरा 
मैं ज़िद्दी  हूँ 
मैं हर दफे निकल आउंगी।
हरा रंग मेरा है, 
मज़हब न पूछो तो मैं हरियाली ही लाऊंगी।  


Saturday, 4 November 2017

गठबंधन

वो आज आईने के सामने खड़े हो
खुद के ,
पुतलियां घूमा,
हर कोने की तलाशी ले रही थी
जैसे जानना चाह रही हो
कि सही से तराशा है या नहीं।
आंखों के पास
अरे नाक के बाई तरफ भी
दो काले भूरे तिल
निकल आये है
उसको भाए नहीं।
हल्के से बाएं हो के
उसने बगलों को झाँका
वो थोड़ी भरी भरी दिखी
झुर्रियों को देख आंखों के किनारों पे
गाल के गड्ढो को
हस के गहरा कर दिया
और गहरा गयी झुर्रियां भी।
उसके टूट्ठी पे
बायीं तरफ एक काला मस्सा है
सुंदर लगता है
उस पर एक काला बाल निकल आया है
बिन बुलाए मुसीबत जैसा,
वो उसे हर बार दांत से काट कर
निकाल फेंकता है,
शुक्र है, वो फिर से निकल आता है।
वो ऊपर से नीचे तक खुद को
धब्बों में जकड़े सीसे में
सवांरती रही।
पलटी और फिर चली गयी
आईने को कोरा छोड़।
शाम में
कागज़ को पानी से नरम कर
उन धब्बों को
मिटा दिया रगड़ के
आईना साफ था अब
पर अब रोशनी जा रही थी
उसने हल्की रोशनी में
उंगली से छू के
आंखे सिकोड़ के देखा
वो टूट्ठी के मस्से का काला बाल
फिर से कमबख्त आ गया है
आज फिर वो दांतों से उसे निकाल फेंकेगा।
वो पिछले पांच दिन से
एक दूजे से ख़फ़ा थे
खटपट आम है उनमें
पर कमबख्त तिल का ये काला बाल
'सिर्फ काम की वजह से'
उसके होंठो और
उसकी टूट्ठी को
कई बार की तरह
फिर बाहरी गठबंधन पे
मजबूर कर दिया।









हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...