Tuesday, 20 June 2017

कौन है ये 'मैं'?

वो एक लड़की की बात करते है,
कोई खिड़की खुलने की बात करते है,
कोई दंगो में मरने वालों की गिनती करते है,
तो वो ज़िंदा लाशों की बात करते है।
वो शाम में टी वी पे ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते है,
कोई उस चिल्लाने को सख्ती से नकारते है,
वो इसका विरोध करता है।
वो उसको सहमी आवाज़ से भड़काते है
कोई चिल्ला के भी जान लगाता है,
वो अकेला शाम को रोज़ बस्ता खोल
कुछ नया लेकर आता है
और वही पुराना बोल जाता है।
कोई अच्छी कविता लिखता है,
कोई कामुक तस्वीरों से लाड लड़ाता है,
वो उनका भी विरोध करता है।
वो जवानों के छालों पे रोते है
इंडिया हार जाये तो पी के सोते है,
हॉकी में जीते तो भी क्रिकेट का शोक मनाते है,
ये भारत के नही केवल फेसबुक ट्विटर के भी रखवाले है।
कोई पान वाला ग्वालियर से राष्ट्रपति बनेगा,
ये सोच चायवाला हँसता है,
कितना हारोगे ये उससे कहता है,
वो उसपे भी विश्वास जताते है,
ये तो गाय को चीते से बदलवाते है,
वो उसका भी विरोध करता है।
रोज़ सांझ कुछ नया लेकर आता है
वही पुराना बोल के चला जाता है।
मैं लिखने की शौकीन
अनपढ़ पर लिखने की शौक़ीन
जब जब खोलूं ये छोटा पिटारा
तकिया पकड़ देखूं दिन का नज़ारा
बह जाने का डर है सताये
'वो' क्या कहते 'ये' क्या सुनते
'कोई' क्या नया खेल रचाता
ये देख दिमाग बौरा सा जाए
फिर कुछ अच्छे गीत जो देखूं
अपनी लेखनी पे शर्म आ जाये
मैं थोड़ी पगलेट
फिर भी लिखने का जी मन भर के आये
पर इन सैकड़ो कहानी में
मै खो जाती हूँ।
इस रंगमंच के फंग मंच का जोकर
बिना पहचाने रसीली कविता
एक विलेन से सुन के सो जाती हूँ।
ठहराव बेचैनी मुर्दा अकड़ शिथिलता
अस्थिर गंभीर नासमझी
इन सब मे कही न कही खुद को
भीड़ का हिस्सा पा
खुद को समाज का रखवाला समझ
मुस्कुराती हूँ।
मैं फिर कभी गांधी कभी मोदी
कभी कन्हैया कभी पटेल
अब तो अम्बेडकर वाली भी बन जाती हूँ।
बड़े रखवाले आ गए है।
वो ये सब बोलने वाले आ गए है
मैं भी कभी हास्य की
तो कभी वीर रस कविता बन जाती हूँ।
श्रृंगार तो वैध है शायद
मैं कभी कभी रूपक में गालियों की शोभा बन जाती हूँ।
मैं मैं कब रहती हूं
इसका एहसास अब दूसरे कराते है
कभी कभी मैं अपने अस्तवित्व का भी आईना दिखलाई जाती हूँ।
मैं ऐसे ही इनसे उनसे मिल के
इस समाज का
बरसो उलझी कहानी से जनी
नई जमात का नया हिस्सा बन जाती हूँ।
मैं बड़ी बड़ी होर्डिंग का मुस्काता चेहरा बन जाती हूँ
किसी के गुस्से का हिसाब बन जाती हूँ
मैं यूँ ही सुबह चाय और रात में बियर बन जाती हूँ।


Sunday, 4 June 2017

कोई तो होगा जो ये बताएगा
ये चार चांद कब हुस्न चढ़ायेगा
कोई तो होगा जो ये बताएगा
चकोर की चाकरी से पर्दा उठाएगा
कोई तो होगा जो ये बताएगा
ये रात आधी क्यों मेरे संग आयी है
जा के उसको समझयेगा
आधी उसके गलियारे में टांगी है
कोई तो होगा जो ये बताएगा
इश्क़ दुआ हो या दवा
उसे खाने के बाद रोज़ खिलायेगा
कोई तो होगा जो ये बताएगा
रात चांदी से सोना कर के जाएगा
कोई तो होगा....
मेरी बहती हँसी को रास्ता दिखायेगा
कोई तो होगा जो बताएगा
मेरी चाहतों पे मरना सिखाएगा
कोई तो होगा जो ये बताएगा
सुबह की लुका छुपी वाला प्यार दिखायेगा
कोई तो होगा जो ये बताएगा
में यहां वो वहां...इस सूरज का फर्क समझायेगा
कोई तो होगा जिससे में ये पूछुंगी
बिना जवाब खिलखिला के मैं हसुंगी
वो पगली बोल के यूँ चला जायेगा
में जर्मनी में बैठी रात 10 बजे दिन को जाना सिखाऊंगी
कोई तो होगा फिर जो बताएगा
रात घड़ी से नही सूरज के जाने से है, वो ये सब समझयेगा
कोई तो होगा....
जो मेरी गुड़िया को बचपना खिलायेगा
उसको सवालों के कपड़े पहनायेगा
उसकी खुशियों को चाभी बना के
घर की मोटर से पानी खिचायेगा।
कोई तो होगा....

हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...