फोटो कर्टसी:गूगल इमेजेज
ये pink तो है पर feminist नहीं है। जी हां, पिंक या गुलाबी रंग हमेशा ही लड़कियों महिलाओं से जोड़ा जाता रहा है। एक बच्ची के पैदा होते ही उसकी दुनिया में एक रंग शामिल हो जाता है उससे बिना पूछे जाने समझे, वो है पिंक। गुलाबी रंग वैसे भी बड़ा मखमली होता है। प्यारा शांत मुस्कुराता सा एकदम लड़कियों जैसा। अच्छा जब लड़कियां लिखती हूँ तो लगता है महिलाएं छूट जा रही है। महिलाएं लिखू तो लड़कियां बुरा मान जायेगी। दोनों शब्दों में फर्क भी है । उनकी स्तिथि में भी और उनके दर्द में भी और उनकी परेशानियों में भी।एक लड़की की कहानी का नाम पिंक से अच्छा क्या ही जो सकता है। पर आज ये पिंक ही जेल बन गया है। या तो ये लड़किया पिंक से बाहर जाना चाह रही या फिर ब्लू रंग का असर इनपे चढ़ रहा है कुछ तो गलत किया है इन्होंने तभी तो मुस्कुराता सा रंग जेल में तब्दील हो इनके आंसू का कारण बन गया है। पर ये फेमिनिस्ट और फेमिनिज्म के बारे में नही है मैं ये आपको यकीन के साथ कह सकती हूँ। आप जाइये और देख के आइये। मुझे उतना पता नही पर एक सिल्क की साड़ी देखी है मैंने अपनी माँ को पहने हुए और अपनी महाराष्ट्रियन दोस्त को उसमे दो रंग एक साथ दिखता है। जब साडी को एक तरफ से देखो तो एक रंग और दूसरी तरफ से या हल्का इधर उधर होने पे दूसरा रंग। उसी साडी जैसा ये पिंक भी अपनें में कई रंग पिंक ब्लू रेड ब्लैक वाइट समाये है।
इस फिल्म की प्रमोशन में भी सब किरदार निभाने वाले कलाकारों ने कहा ये फिल्म लड़कियों के ऊपर है वो भी जो दिल्ली में रहती है। पर भरोसा रखिये अगर आपको लड़कियों के फेमिनिस्ट वाले मुद्दे से थोड़ी भी परेशानी है तो मैं बता दूं ये लड़कियों पे नहीं बल्कि हम और आप पे है। बिलकुल लगेगा कि 'शब्द मेरे है बस बोल ये रहे है' अब वो निर्भर करता है कि कौन सी लाइन पे आपको ये खयाल आता है। तालियां कई बार बजी हाल में पर वो किसी के करतब पर थी या अपनी जीत पे ये जानना थोड़ा मुश्किल हो जाता है आजकल की सूडो नेचर वाली जनता में।
ऐसे मुद्दों पर कई फिल्म बन चुकी जो इन मुद्दों को उठाई और बहस छेड़ना चाही। पर वो मुह के बल गिरी क्योंकि उनमे फेमिनिस्ट भाव ज़्यादा था। एंग्री इंडियन गोडेस्सेस, माफ़ी चाहूंगी अगर नाम गलत लिख रही हूँ तो, जैसी मूवी कब आयी और कब चली गयी पता ही नही चला। सुजीत सिरकार की ये पिक्चर हिंदी सिनेमा के father figure से ही आइना दिखवा रही है। बच्चन के बोलेने पे जब पोलियो चला गया तो क्या पता यहाँ भी कुछ बात बन जाये। ये एक समन्वय मतलब सिमीट्री दिखाने का भी प्रयास है दोनों वर्गों में जो आखिरी में सहगल साहब से महिला सिपाही हाथ मिला कर डायरेक्टर साबित करते दिखे है। उसे आप कैसे भी देख सकते है पर मुझे ये पॉइंट ज़्यादा पसंद आया। वर्ना पुलिस वाली सैलूट भी कर सकती थी इज़्ज़त में। मैं किसी फिल्म का रिव्यु नही लिख रही इसलिए मुझे कहानी किरदार की बात नही छेड़नी। बस ये कहूँगी की ये फिल्म जा के देखिये। पिक्चर हॉल में इसलियेW क्योंकि तब पता चलता है कि आये कैसे थे और पिक्चर ख़तम हो के जब जा रहे तो क्या और कैसे है? ये फील हो रहा था कि काश सब ये देखे और हम नार्मल हो के चल सके। सिम्बोलिक इष्टब्लिश्मेन्ट बेहतरीन है इस पिक्चर का। बिना किसी बहस के एक बहस में 'ना' की परिभाषा समझा दी सहगल साहब ने। ये ना का मतलब क्या हम जानते है? बिना बहस इसलिए कहा क्योंकि ऐसे लगा आखिरी में कि बहुत सी बातें बतानी है कि लड़कियां ऐसी स्तिथि में गलत नही है। क्यों उनके चरित्र पे सवाल? ऐसी ऊल जलूल बातें क्यों? ये जो समाज का स्ट्रक्चर्ड आर्गनाइज्ड संघठन है जो एक तरफ़ा लड़कियों को गलत साबित करने में लग जाता है उनसे बहुत कुछ बोलना था। इस फिल्म में मुझे मेरे घर वाले यार दोस्त सब नज़र आ गए। आपको भी आएंगे । बिना कुछ बोले बस अंदर ही उन किरदारों से रूबरू हो लीजियेगा और अपना केस भी लगे हाथ इसी बहस में निपटा लिजियेगा। ये हमारे समाज को एक तमाचा है। उस सोच पर तमाचा है। जब मैं एक बार एक लड़के से दिन में पांच बार मिल ली इत्तफाकन तो उसके दोस्त ने कहा तुम लोग live in में क्यों नही रह लेते? ऐसी सोच को तमाचा है। जब कोई मुझे कहता है कि ब्लॉग लिखो पर ज़्यादा खुल के मत लिखो लोग तुम्हे जज करेंगे उनसे सवाल है औए मुझसे भी कि उनको बोलने क्यों दिया और अगर बोल भी दिया तो सुना क्यों मैंने? एक जवाब तो दो उनको।
सहगल साहब ने गर्ल्स सेफ्टी मैनुअल्स बताये है जो शहर की लड़कियों के लिए तो फिट है पर ये ग्रुप स्पेसिफिक है। गाँव की लड़की की ये परेशानी नहीं है। पर सलूशन वही है जो आखिरी में दीपक सहगल ने बताया है। ये पूरी फिल्म आपअपने हिसाब से समझ सकते है। राय रख सकते है पर इस फिल्म का आखिरी हिस्सा, जिसकी तरफ मेरे एक दोस्त ने मेरा ध्यान केंद्रित किया, वो सोचने लायक है। सूरज की रौशनी में घर की बालकनी में खुले आसमान के छोटे से हिस्से से ख़ुद को ढके दो गज़ ज़मीन पे अपना आशियाना सजाने का ख्वाब लिए ये तीन लड़किया (सिंबॉलिक) जो अपने नार्मल लाइफस्टाइल की वजह से आज अपनी इज़्ज़त एक कमरे में गवा के , सरे आम कोर्ट में जीत के अपनी नौकरी यारीदोस्ती प्यार गवा के क्या सोच रही होगी? वो आज दारू पी के नाच के पार्टी नहीं कर रही? रॉक शो में नही गयी? रो नही रही? हस नही रही? शॉपिंग नही कर रही? परेशान नही है और न ही मायूस है। फिर क्या है इस आखिरी शॉट का मतलब? और हाँ, एक बात गौरतलब है यहाँ वो पीछे नही आगे देख रही है।
मुझे मेरे एक पाठक मित्र हमेशा कहते है आप प्रेमचंद पढिये।अभी मौका तो नही लगा पर मैं हाल ही में उनकी कहानी के एक हिस्से से दो चार हुई। वो प्रेमचंद की पीड़ा सहती हुई सर्वोच्च स्थान प्राप्त अतिगुण संपन्नं नारी और सुजीत की इन questionable character वाली बोल्ड कॉंफिडेंट और स्मार्ट लड़कियों दोनों में ही फर्क कम नज़र आता है बस तब प्रेमचंद थे अब दिलीप सहगल है। तब भी सवाल थे निर्मला के अब सवाल है मीनल के। समझना तो पड़ेगा ही। पिंक का जेल बनना ज़रूरी है तभी रिहाई की गुंजाईश बनती है उनकी भी और हमारी भी।
5 comments:
Sahi h Garima...sabko ye movie dkhni chahiye... Tki AP aur hum bina safety manuals ke jee sake...
Well written..people of any gneder must watch this movie n read this blog specially for description of symbolic scenes.. though You can add more lines in this.. I would love to read it soon.
Thank you Ekta, Shreya for your valuable comments.
Shreya, kuch baatein bina kahe bhi samjhi jati hai. Log movie dekhe aur khud samjhe. Bs common sense sath le jana na bhoole...wo kabhi kabhi na hum avesh me bhool jate hai...specially ladkiyon ke mamle me.😉
Nicely written.. But I have my own questions related to this movie.. Like at the end it's been shown what exactly happened that night.. But I guess that should have not been shown.. There is a lot in my mind it's just that can't write it here as I feel the perceptions will be made that he is a guy and that's y he is saying all these things..
Ekta Makhija if you really wanna stay without safety manuals then the first place where the change should be made is my and your home..
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