Monday, 12 September 2016

बेनाम से ख्याल

इनकी आँखों के तले मश्वरा न हुआ होता
रात अँधेरी न होती तो काला क्या होता
जो नारंगी गोल गोल था दिन में ऊपर
वो सूरज न होता
तो क्या चाँद दिन का सितारा होता
गैरो की महफ़िल में सजाते रहे रंग
श्रृंगार के इतने प्रकार न होते
तो हँसने हँसाने का गुज़ारा क्या होता

किसी हाफ़िज़ से तालीम लेकर आये है
वर्ना कारीनों पे पाजेबो के जुमरूओं का  इशारा क्या होता
मोहब्बत आशिक़ी गर होती
इबादत मोहब्बत गर होती
इश्क़ का मजहब औ क़ुरान के पन्नो का नज़ारा क्या होता

2 comments:

Satyendra said...

Benami bhare khayal na hote toh ब्रह्मराक्षस ka guzara kaise hota. Kya ye khayal hi kafi nahi ki koi kaam ha karne ko

Kehna Chahti Hu... said...

khayaal me aa jaye to kar liya jayega wo bhi.

हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...