Tuesday, 25 August 2015

आदमी और आदमी में आदमी

हर आदमी में होते है दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो, कई बार देखना ।

निदा फ़ाज़ली साहब की ये पंक्तितयां एक किताब के पेज पे देख खुद ब खुद मुस्कान होंठो पे छा गयी। कितनी सटीक बैठती है ये हम पर। सोचा इतनी सरल और गज़ब वाली बात आपसे कहानी तो बनती है।
तो जनाब, आदमी में आदमी खोजने का कार्यक्रम शुरू करे इससे पहले एक बात कहना चाहेंगे कि अगर इन दस बीस आदमी में दस बीस बार एक बात एक सी हर वक़्त दिखे तो कुछ कायदा यह भी कहता है कि आप हमराह बन रहे है किसी के-

कि हर दिन वो कुछ अलग था
हर दिन कुछ नया
कभी उल्फत की बात थी
कभी सूरज का गम बड़ा
इन सब में जो गज़ब था
जिसपे हम मर मिटे
कि वो हर वक़्त दूर कही
कोने में, क्षितिज पास
हाथ थामे फलक बैठा था ज़मीं का ।

ज़रा इन दस बीस का पैमाना तो देखे कि हम पहचाने कैसे कि वो कैसा है कौन है मेरा है या कोई और है-

कि वो हर बार में बदलता है
कभी नौका तो कभी डूब के उबरता है
उसे हर बात में शिकायत है
कभी पानी तो आग से
खिलाफत है
वो न मंदिर है
न मस्जिद वाला
वो तो एक गली के कोने में बैठा
काहिल कोई बगावत है
जो हर दिन उचक के चिल्लाता है
जब अजान का शोर ज़ोर होता है
बंद पड़ती घंटियों संग शांत हो
ठहर जाता है
कि मलबा गिरेगा शहरो का
शामिल उसी में हो जाऊ
मेरे जीने की इस कहानी में
हीरो कभी तो बन जाऊँ।
वो एक मासूम की कवायद है
बुज़ुर्गों का मापदंड है वो 
अपनों की  कड़वाहट है 
किसी का सहारा है वो 
किसी की गभराहट है 
बड़ा मुश्किल है तुझे जानना 
ऐ आदमी 
तू किसी की ताकत 
तो 
किसी की बगावत है। 
जब एक के अंदर दस बीस बसे हो 
तो कैसे कहूँ 
कौन सा तू मेरा है 
कौन सा बनावट है। 
हर आदमी में 
निदा फ़ाज़ली मिल सकता है 
कुछ में ग़ालिब की लिखावट हैं 
कुछ में कलाम सा 
रंग छुपा 
तो कोई अपनी ही 
लिखावट है। 
तो न खेल शतरंज की बाजियां यहाँ 
शह मात में जीत हार बसी 
तू कर एक को अपना 
और सब में उसकी आदत है।
तू एक से ही कर
दस बीस में तरी ही मोहब्बत है
तेरी ही मुस्कराहट है।  


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