Tuesday, 25 August 2015
Saturday, 1 August 2015
मसान, मिसाइल मैन और मेमन
मसान, मिसाइल मैन और मेमन.... ये तीन नाम उसी क्रम में लिए गए जिस क्रम में हमारे बीच हुए है. मसान पिछले कुछ हफ्ते रिलीज़ हुई वरुण ग्रोवर की लिखी फिल्म है. मसान- नाम ही था शायद कि बिना ज़्यादा जाने बिना ज़्यादा पूछे ये फिल्म देखने चली गयी थी।बस एक सवाल लिए की कोई मौत से कितना रोमांस कर सकता है? मसान संस्कृत शब्द श्मसान का बिगड़ा हुआ रूप है। दूसरा था इसका बेजुबान किरदार खुद में कई सारे राज़ समेटे दो नाम बनारस और अलाहाबाद। ना जाने कितनी कहानियाँ समेटे ये चुपचाप न जाने कितने आंसू पीता है, कितनी खुशियाँ जीता है और न जाने कितनो के राज़ दफनाए रखता है खुद में ये शहर। दोनों ही गंगा किनारे बसा अपनी अपनी वजह से मेरे करीब है। फिल्म देखने के बाद फिल्म खुद भी एक वजह बन गयी थी और वजह बन गए इसके गाने। इंडियन ओसियन के गाने पहले ही आकर्षित करते रहे है अपने तरीको से अपने लफ्ज़ो से। इस बार 'तू किसी रेल सी गुजराती है' और 'फिर दिल कस्तूरी जग दस्तूरी' … ये गाने सब कुछ बयान कर देते है बस ज़रूरत है तो थोड़ी देर इन संग बैठ के बातें करने की। इनके शब्दों में खुद को खोजने की। म्यूजिक के साथ खुद को झकझोर के उठानें की और फिर कही तो खो जाने की। इन सब में जो मुझमें जागती रही वो थी मौत की खूबसूरती, उसकी दहक, उसकी जलन, उसी की ठंठक। मैं इन सब के बारे में कुछ लिखना चाहती थी. आपको बताना चाहती थी कि फिल्म क्या कहती है। इसका अंत जो मेरे लिए आसान था अनुमान करना वो एक शुरुआत थी ज़िन्दगी की और फिल्म की शुरुआत एक अंत था ज़िन्दगी का। कई सवालो का अंत और शायद कई सावलो की शुरुआत। ही सबसे खूबसूरत था मेरे लिए, यही बताने का तरीका ढूंढ रही थी। क्या लिखू वो सोच रही थी कि एक दोस्त ने खबर दी कि हम सब के आइडियल 'मैन ऑफ़ गोल्ड' हमारे मिसाइल मैन हमारे बीच नहीं रहे। मैं दंग थी और पछता भी रही थी। अभी हाल ही में मैंने उनके असिस्टेंट से बात की थी मुलाकात के लिए। कलाम साहब दिल्ली आये थे उन दिनो। असिस्टेंट महोदय ने कहा कोई प्रोजेक्ट है आपके पास या कोई ख़ास वजह? सिर्फ मेरी इच्छा है, ये काफी न था। मेरी रिसर्च कम्पलीट होने ही वाली है ये सोच मैंने तुरंत कहा हाँ, है कुछ मेरे पास, पर अभी काम बाकी है थोडा। उन्होंने कहा पूरा होते ही आप बात कीजियेगा, मुलाकात हो जाएगी। मैं नहीं मिल पायी उनसे। मैं पीछे रह गयी।मौत किसी का इंतज़ार नही करती। न ही असल ज़िन्दगी में और न ही उस फिल्म में। और किसी के जन्मदिन के दिन ही उसे मार देना, अलग कहानी। यहाँ हम बात कर रहे है तीसरे M की …मेमोन…याकूब मेमोन। इनका परिचय देने की मुझे बिलकुल ज़रूरत नही है। कुछ उनके पक्ष में, कुछ विपक्ष में , कुछ हमदर्दी तो कुछ तर्क, कुछ संविधान के बारे में तो कुछ इतिहास के बारे में अपने ज्ञान को बढ़ाते बताते कुछ न कुछ सब कह सुन रहे है। मैं सिर्फ ये जानती हूँ कि एक फिल्म जिनके किरदार जिन्हे हम जैसे आम आदमी को दिखाया है वो और दूसरे हमारे देश के राष्ट्रपति कलाम साहब और तीसरे जिसे हमारे देश के कानून ने आतंकवादी बताया, इन तीन कहानी में इनका एक हिस्सा जो इनको हमारा हिस्सा बना गया वो है इनका मसान तक का सफर। जो इनको हमारे बीच ज़िंदा कर गया।मसान को कहा से जोडू मुझे ये नही पता, सुबह नाश्ता करते वक़्त किसी की आवाज़ सुनाई दी कि अरे हो गयी फांसी उसको। सबेरे ७ बजे ही। कुछ 'डेमोक्रेसी' का जश्न रहे थे तो कुछ विरोध में थे। कुछ कानून व्यवस्था की वाह वही तो कोई एक नए डर में जकड़ता दिखा। कोई हिन्दू बहुल राष्ट्र में सीना चौड़ा कर के चल रहा था तो कोई मुस्लिम होने से डर रहा था। कोई कलाम जी को अच्छा मुस्लिम तो मेमन को बुरा बता खुद को 'लिब्रल' बता रहा था और इंडिया को सेक्युलर। कही जश्न तो कही मातम था। कही २५० की मौत का बदला तो कही कुछ गलत हो गया इसकी बुदबुदाहट थी। इन सब में कुछ ठहर से गए तो कुछ दो पल रुक कर निकल गए। हमारा 'सूडो' नेचर हमसे आधा आधा सब कुछ करवा लेता है। बहुत सी बात है जो इसमें कहने सुनने वाली है इन तीनो के बारे में, खास तौर से मेरे पसंदीदा कलाम साहब के बारे में। पर वो सब मैं छोड़ती हूँ क्युकी कइयों ने बहुत उम्दा और ज़्यादा कहा है इन तीनो के बारे में। मैं इतनी समझदार कहाँ? मैं तो बस आपसे दो चार बातें करना चाहती हूँ ,दो चार आपसे सुन्ना चाहती हूँ आपकी दिल की।
खैर, ये तीन घटना दिमाग में M 3 बन कर सामने आई - मसान, मिसाइल मैन और मेमन। मेमन कौन थे, क्या थे? मैं दो हफ्ते के पहले जानती भी नहीं थी, हमारे मिसाइल मैन इनके बारे में जो ना जनता हो मुझे उसका ख़ास पता नहीं और मसान इसके बारे में रिलीज़ होने के कुछ वक़्त पहले पता चला। हर इंसान की ज़िन्दगी का तो नही पता पर मौत के बाद वो दर्ज हो जाती है हमारी ज़िन्दगी में। एक फिल्म जब बनती है उसकी ज़िन्दगी शुरू होती है, और जब वो रिलीज़ होती है वो उसकी मौत होती है क्युकी वो अपना काम उस वक़्त कर देती है और सिनेमा घर में आते ही उसकी किस्मत्त का ताला बंद हो जाता है वैसे ही जैसे हम फिल्म के एक कांसेप्ट से इस दुनिया में आते है pre production, production post production editing सब कुछ होती है। ज़िन्दगी भर सीखते है और खुद को 'एडिट' करते रहते है। अपने आप को बेहतर प्रेजेंट करते है जिसे अच्छी नौकरी, झोकरा झोकरी (जो चाहिए) वो मिल जाये, वो 'ऑडिशन' होता है, प्रेजेंटेशन सिनेमेटोग्राफी होती है, हमे 'अवार्ड्स' भी मिलते है, ग्रैमी मिलता है की ऑस्कर या फिर फिल्म फेयर ये हमारे कर्मो और तरीको पे निर्भर करता है उदाहरण दोनों M ( मेमन और कलाम साहब )को देख लीजिये ये असल में मिलता है ज़िन्दगी पूरी बीतने के बाद। हमे लोग याद रखेंगे या नहीं, अच्छा या बुरा कैसे ये सर्टिफिकेट मसान तक पहुचने पे ही मिलता है। ज़िंदगी तो बस उसका गुणा भाग है। कलाम साहब हमेशा से फेमस रहे, एक राष्ट्रपति के तौर पे, एक सफल वैज्ञानिक के तौर पे, बच्चो के पसंदीदा नेता और उनकी किताबो के ज़रिये वो हम तक पहुँचते रहे। पर जब आज वो हमारे बीच नहीं है, तो उनकी उपस्थिति ज़्यादा हो गयी हमारे बीच। खबर मिलते ही अधिकतर लोगो का स्टेटस था RIP KALAAM JI और ऐसे ही। वो वाक़ई दुखी थे या नहीं ये वो खुद भी नही जानते। पर ये टेक्नोलॉजी भी हमें नए सामाजिक रिवाजो में बाँध चुकी है जो हम बिना समझे फॉलो करते जा रहे है। इसमें मैं शायद एकतरफा लगूं पर मैं इस 'बिहेवियर' की पक्षधर कम हूँ। तो मैं इसे दूर रखती हूँ आज के ब्लॉग से। उनकी मौत पे जब मुझे दुःख हुआ तो मुझे लगा कि मेरे मरने पे भी सबको दुःख होना चाहिए, उसके लिए उनकी तरह छोटा बड़ा कुछ करना पड़ेगा। इंसान दुखी तब होता है जब उसे लगता है उसका अपना कुछ खो रहा है या फिर कोई ऐसा इंसान चला गया जो उनकी बेहतरी में कुछ कर सकता था। मतलब ये कि मुझे दुसरो के लिए कुछ करना होगा।
खैर,याकूब मेमन किसकी मदद कर रहे थे,किसी अपने की? किसी के अपनों को मारने की, ये सवाल आज भी सवाल सा ही है। लेकिन बहुत सारेऔर सवाल भी उठते है। जो हुआ ये एक उदहारण बनाने के लिए किया जा रहा है या सच है जो कहा जा रहा है। क्या सच में एजेंसी की मदद का कोई फायदा नही हुआ। अगर अपराध बड़ा था तो सिर्फ एक को ही क्यों ये रेयर ऑफ़ rarest पनिशमेंट ? मौत का बदला मौत से न्याय होगा क्या अब?
राजनीतिकरण के कारन हमे हमारी सभ्यता का सच भी वोट बैंक की राजनीती लगती है, हर नयी बात हिन्दुत्ववाद की नयी खोज लगती है। शायद यही कुछ मेमन के साथ भी हुआ हो या ना भी हुआ हो। लकिन दंड का हमारा उद्देश्य क्या था? दंड व्यवस्था का उद्देश्य सुधार के लिए था बदले के लिए नही। यह फ़ासी कई सवाल उठाती है बाबरी मस्जिद गिराने वालो को फसी क्यों नहीं? गोधरा कांड में फसे लोगो को फसी क्यों नहीं ? इन सवालो का जवाब या खुद को बेहतर दिखने का जवाब किसी हिन्दू अपराधी को फांसी तो नही हो सकती न? पर कुछ ऐसा करके जरूर जिसके लिए हम जाने जाते है। इमोशन के नाम पे यहाँ इलेक्शन जीत लिए जाते है।कहते है लहर चल रही है और जिसकी लहर वही जीतेगा। ३० साल के बाद इतिहास दोहराया जा सकता है तो हम अपनी संस्कृति क्यों भूलते जा रहे है? हम उनके जैसे तो नहीं हो सकते कम से कम। मौत से बड़ा नुक्सान होता है। चाहे वो हमारी हो या किसी और की। पर इन मौतों का क्या? कलाम साहब के शोक में राष्ट्रध्वज आधा झुका रहा ७ दिन तक। होना भी चहिए, हम उनके बहुत आभारी है। पर उन हज़ारो मौतों का क्या? जो इनकी ही तरह गुमनाम और बेजुबान है। मौत से रोमांस बहुत अच्छा है अगर वो रोमांटिसाइस करे तो। पर मौत के पीछे का मातम भी उतना ही बुरा है जब किसी की चीख बन के उसका सब कुछ बर्बाद कर देता है। मैं बस इतनी उम्मीद रखती हूँ की मसान के बारे में बात होती रहे, मसान में जगह बनी रहे। मसान मौत का ऐसा कोई जुमला न बन जाइए जिसे बोलने में डरने लगे हम। ज़िन्दगी के बाद मौत है ज़िन्दगी मौत नहीं है. हर आदमी कुछ ऐसा कर सके कि उसकी मौत पे पूरा हिन्दुस्तान न सही कुछ लोग तो रोये की हाँ कोई मसान गया है, कोई मसान गया है।
खैर,याकूब मेमन किसकी मदद कर रहे थे,किसी अपने की? किसी के अपनों को मारने की, ये सवाल आज भी सवाल सा ही है। लेकिन बहुत सारेऔर सवाल भी उठते है। जो हुआ ये एक उदहारण बनाने के लिए किया जा रहा है या सच है जो कहा जा रहा है। क्या सच में एजेंसी की मदद का कोई फायदा नही हुआ। अगर अपराध बड़ा था तो सिर्फ एक को ही क्यों ये रेयर ऑफ़ rarest पनिशमेंट ? मौत का बदला मौत से न्याय होगा क्या अब?
राजनीतिकरण के कारन हमे हमारी सभ्यता का सच भी वोट बैंक की राजनीती लगती है, हर नयी बात हिन्दुत्ववाद की नयी खोज लगती है। शायद यही कुछ मेमन के साथ भी हुआ हो या ना भी हुआ हो। लकिन दंड का हमारा उद्देश्य क्या था? दंड व्यवस्था का उद्देश्य सुधार के लिए था बदले के लिए नही। यह फ़ासी कई सवाल उठाती है बाबरी मस्जिद गिराने वालो को फसी क्यों नहीं? गोधरा कांड में फसे लोगो को फसी क्यों नहीं ? इन सवालो का जवाब या खुद को बेहतर दिखने का जवाब किसी हिन्दू अपराधी को फांसी तो नही हो सकती न? पर कुछ ऐसा करके जरूर जिसके लिए हम जाने जाते है। इमोशन के नाम पे यहाँ इलेक्शन जीत लिए जाते है।कहते है लहर चल रही है और जिसकी लहर वही जीतेगा। ३० साल के बाद इतिहास दोहराया जा सकता है तो हम अपनी संस्कृति क्यों भूलते जा रहे है? हम उनके जैसे तो नहीं हो सकते कम से कम। मौत से बड़ा नुक्सान होता है। चाहे वो हमारी हो या किसी और की। पर इन मौतों का क्या? कलाम साहब के शोक में राष्ट्रध्वज आधा झुका रहा ७ दिन तक। होना भी चहिए, हम उनके बहुत आभारी है। पर उन हज़ारो मौतों का क्या? जो इनकी ही तरह गुमनाम और बेजुबान है। मौत से रोमांस बहुत अच्छा है अगर वो रोमांटिसाइस करे तो। पर मौत के पीछे का मातम भी उतना ही बुरा है जब किसी की चीख बन के उसका सब कुछ बर्बाद कर देता है। मैं बस इतनी उम्मीद रखती हूँ की मसान के बारे में बात होती रहे, मसान में जगह बनी रहे। मसान मौत का ऐसा कोई जुमला न बन जाइए जिसे बोलने में डरने लगे हम। ज़िन्दगी के बाद मौत है ज़िन्दगी मौत नहीं है. हर आदमी कुछ ऐसा कर सके कि उसकी मौत पे पूरा हिन्दुस्तान न सही कुछ लोग तो रोये की हाँ कोई मसान गया है, कोई मसान गया है।
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