एक छोटी बच्ची माँ के साथ उसका हाथ पकडे रात में बाहर खुले में घूम रही थी। उसकी नज़र आसमान में चमकते चाँद पे गयी जो अपनी रौशनी से रात की स्याह चादर उजली कर रहा था। वो माँ के आगे पीछे छुपते चाँद से छुपम छुपाई खेल रही थी। अगली सुबह 5 बजे छत पे दिन की रोशनी आने से नींद खुलने पे उसे उस चाँद की जगह एक नारंगी रंग का गोला दिखा।उतना ही गोल बीस रंग का फरक।
उस छोटी सी बच्ची के सवाल और जवाब..
रात के दस बजे
आसमान में एक चमकता
चांदी रंग का गोल गोल सुन्दर सा
घूम रहा था मेरे संग
जैसे जैसे मैं घुमू
झांके मुझे कभी
पेड़ के पीछे से
तो कभी छत की रेलिंग में बने खानो से
शांत था
पर सुबह भोर में
5 बजे
था आसमान में
एक नारंगी गोला जैसे गुस्से में लाल
मैं जाऊ जहाँ जहाँ
वही आये पीछे पीछे
दिन चढ़ते वो गुस्साए
लाल और होता जाये
क्या हुआ उसे
रात में तो शांत था
किसी का इंतजार था क्या उसको
जो उससे मिलने न आया
या फिर ये बहरूपिया रंग बदलता है
दिन होने पे लाल रंग
और साँझ में चाँद ये बनता है।
आज न पीछा छोड़े है
मैं निकली क्या बाहर
ये मुझे ही घूरे है
हवा से लड़ जाता है
वो गुस्से में झल्ला
हमे जलाती है
इसके गुस्से से धरती भी
आग बन जाती है।
उससे बोलो बरसने को
शायद ये ठंठा पड़ जाये
पता नही क्या ज़िद है इसको
शायद होश में आ जाये
इसका कुछ छूटा है क्या
जो धरती घूरे जाता है
बोलो इसको ये मेरी है
आसमान पे हक़ क्यों न जताता है।
बादल इसका पापा है
तभी तो उसके आने पे छिप जाता है।
न हो गुस्सा
माँ बोली तू 'सूरज' है
तो मेरे 'भैया' जैसा
मुझपे क्यों गुर्राता है।
धरती मेरी माँ है
इसके आँचल में छुप जाउंगी
तेरे हाथ न आउंगी।
गर्मी छुट्टी है
तेरे पापा घर आये है
अब देख तू
बादल देख आ गया
अब तेरी शामत आई है (हसते हुए) ।
लगा शिकायत डटवाउंगी
पापा से पिटवाउंगी
नहीं मिलेगा धरती से कुछ
उस छोटी सी बच्ची के सवाल और जवाब..
आसमान में एक चमकता
चांदी रंग का गोल गोल सुन्दर सा
घूम रहा था मेरे संग
जैसे जैसे मैं घुमू
झांके मुझे कभी
पेड़ के पीछे से
तो कभी छत की रेलिंग में बने खानो से
शांत था
पर सुबह भोर में
5 बजे
था आसमान में
एक नारंगी गोला जैसे गुस्से में लाल
मैं जाऊ जहाँ जहाँ
वही आये पीछे पीछे
दिन चढ़ते वो गुस्साए
लाल और होता जाये
रात में तो शांत था
किसी का इंतजार था क्या उसको
जो उससे मिलने न आया
या फिर ये बहरूपिया रंग बदलता है
दिन होने पे लाल रंग
और साँझ में चाँद ये बनता है।
मैं निकली क्या बाहर
ये मुझे ही घूरे है
हवा से लड़ जाता है
वो गुस्से में झल्ला
हमे जलाती है
इसके गुस्से से धरती भी
आग बन जाती है।
शायद ये ठंठा पड़ जाये
पता नही क्या ज़िद है इसको
शायद होश में आ जाये
इसका कुछ छूटा है क्या
जो धरती घूरे जाता है
बोलो इसको ये मेरी है
आसमान पे हक़ क्यों न जताता है।
तभी तो उसके आने पे छिप जाता है।
न हो गुस्सा
माँ बोली तू 'सूरज' है
तो मेरे 'भैया' जैसा
मुझपे क्यों गुर्राता है।
धरती मेरी माँ है
इसके आँचल में छुप जाउंगी
तेरे हाथ न आउंगी।
गर्मी छुट्टी है
तेरे पापा घर आये है
अब देख तू
बादल देख आ गया
अब तेरी शामत आई है (हसते हुए) ।
लगा शिकायत डटवाउंगी
पापा से पिटवाउंगी
नहीं मिलेगा धरती से कुछ
तुझे तेरे पपा से डटवाऊंगी।
5 comments:
बहुत सुन्दर सृजन !
अत्यंत भाव प्रवण !
एक स्त्री हृदय की भावअभिव्यक्ति !!
नमन....!!!
दो गोलों की तुलना की कल्पना अदभुत......!!
Abhaar mitra :-)
आपकी लिंक को 5 लिंकों के साथ संग्रह कर रही हूँ
विभा जी, आप पहली बार हमसे जुड़ रही है, आभार व्यक्त करती हूँ।
आप जिन 5 लिंको की बात की है, उनके बारे में कुछ बताइये..जानकारी के लिहाज से जानना चाहती हूँ।
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