Monday, 11 May 2015

तारा

मैं कल ट्रेन से सफ़र कर रही थी.… खिड़की से रात में बाहर नज़र दौड़ाई जब हल्का सा पर्दा हटा कर तो मुझे अचानक दौड़ते अँधेरे में जुगनू जैसे चमक जला कर भाग जा रही थी,जब घरो में जलने वाली लाइट्स दौड़ती ट्रेन से टकरा रही थी।  ये तारे से लग रहे थे। तभी ख्याल आया कि जैसे हम अपने आँगन में लेट खाट पे तारे गिन गिन बचपन बिताये है, ऐसे ही ऊपर रहने वाले भी झांकते होंगे तो उन्हें ये लाइट्स तारे लगते होंगे। जैसे हमे यहाँ से लगता है। क्या पता हम जिसे तारा समझते है उनका क्या हो? जैसे उनका तारा हमारी सच्चाई है। यही उहापोह है आपके लिए भी.....

जब वो झांकते होंगे अपने आँगन से
दीखते होंगे उनको जुगनू
हर घर आँगन में
कुछ जलते कुछ बुझते
ये जुगनू तारे है उनके
अँधेरी गलियों में टिम टिम करते सपने है ये

क्या मेरा तारा भी उनका कुछ होगा
टूटता हुआ तारा उनका भी कुछ होगा
मेरी मुरादों में क्या छुपा कोई डर होगा
क्या उनका कोई दर्द होगा

उनका तारा मेरी सच्चाई है
जलती आग की एक सलाई है
मेरा तारा उनकी क्या कोई लगाई है

कुछ ठंठा सा लगता होगा
जब चलती होगी पवन चक्की
डर जाते होंगे वो ये सोच
बदल कड़कते होंगे जब उनके घर
जब गिरते है गोले
बजती है बंदूके ISIS की

हमारे त्योहारों में वो झांक झांक देखते होंगे
उनके बच्चे भी आने को रोते होंगे
सुनामी तो उनका करतब होगा
उनके पानी वाले बादल के टक्कर का होगा
अपनी भी इज़्ज़त होगी इनके आँगन में

पर.....
ये सोच मज़ा आ जाता है
ये सोच अच्छा लग जाता है
की वो झाक झाँक देखते होंगे
अपने आँगन से
जुगनू मेंरे आँगन के
जलते बुझते जुगनू
उनके तारे मेरे आँगन में।

आज समझ पायी
 कि तारे रात में ही क्यों दिखते है हमें
ये जुगनू रात में ही क्यों टिमटिमाते है।





2 comments:

Unknown said...

तारे दिन में भी दिखते हैं..😂😂

Kehna Chahti Hu... said...

हाहाहाहा...पर इरादतन नहीं। ;-)

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