Friday, 23 February 2024

खंडहर मकान

 एक खंडहर मकान 

जिसमे ईंट पत्थर सीमेंट से बना ढाँचा है

रंगाई पोताई भी हुई है रंगों से 

बग़ैर इंसानों के 

उस आशियाने में 

जंगली झाड़ियों, कीड़ों और अंधेरों ने क़ब्ज़ा कर लिया है 

ऐसा ही हो जाता है 

जो कहता है कि 

मेरे अपने मेरे साथ नहीं 

कोई उन्नीस साल की लड़की 

दूरस्थ किसी के बहकावे में,

कोई नौजवान किसी के इश्क़ में, 

जब उसका साथ ना मिले 

तो खंडहर हो जाता है 

जब एक माँ अपनी बिटिया की जान गवाँ बैठती है 

बाप समाज में रीढ़ सीधी किए 

मुस्कुराता चलने का आडंबर करता है 

अंदर से खंडहर उसी मकान की तरह, 

जब साथी का साथ 

किसी और के साथ 

उसे महफ़ूज़ लगे,

अपना घर के ताले ख़ुद बू ख़ुद खुल जाते हैं 

सब घुसने लगते हैं

खंडहर में,

वीरान जंगल से जानवर भी रुठ जाते हैं 

वो ना रुठते तो शायद जंगल ज़िंदा हो जाता फिर से

शायद उनके जाने से ही वीरान हो गया वो

खंडहर उस मकान जैसा,

उसने अपनी अम्मा की बीमारी में 

खूब मन लगाया 

ख़िदमत की 

अम्मा ना रही 

उसके दिल का एक कोना 

खंडहर हो गया 

अपनी ज़िम्मेदारी और मोहब्बत की इबादत में,

उसने अपना भाई खोया 

रास्ते में पड़े हर मंदिर 

और उसमें बसाये गये 

हर भगवान नुमा मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर, 

कुछ बरसों के लिए वो खंडहर हो गई थी, 

अम्मा को जाना था तब 

बिटिया का साथ इतना ही था 

उस दूरस्थ नये प्यार जैसे बेजान प्यार का ना मिलना तय था 

जंगल से जानवरों को नये रास्ते जाना ही था 

साथी को तत्कालीन ख़ुशी 

किसी और बाहों में मिलना ही था 

और उसे अपने भाई का साथ 

दूसरे भाइयों में पाना था 

जिसने बचपन में अपने पराये का सबब

समाज से नहीं अपनी माँ से सीखा था 

पर देखिए ना 

ये सब कहते कहते ही

मेरी आँखें भर आयी 

उसकी भी जिसने बिटिया खोयी 

जिसने अम्मा को याद किया 

जिसका प्यार ना मिला 

और वो जो एक अदद 

घर से मकान और फिर खंडहर हो गये 

बेशक ये खंडहर फिर से मकान 

और मकान से ख़ुशहाल घर 

रंगों से महक उठेगा।

अंधेरों से मुस्कुरा के मिलिए 

इंसानियत रोशनी है 

जो मोहब्बत सरीखी 

ख़ुदा बराबर मीठी मिश्री है। 


Thursday, 15 February 2024

दबे छिपे ख़ाब

 दबे छिपे ख़्वाब 

जो मैं जानती भी नहीं 

कहीं छिपे हैं 

बेनाम बेपता बेतरतीबी से 

आँखों से इशारे करने थे 

ज़ोर की सीटी बजानी है 

बांसुरी बजाना था ऐसे कि जिन्हें सुन के मेरे आंसू ना थमे थे उस दिन लखनऊ में एक शाम में 

ढोलक पर एक बढ़िया सुर के साथ ताल 

मोहब्बत इश्क़ में सराबोर हो जाने का 

उसके साथ बेझिझक कभी भी मिल पाने का 

अपने ही अन्दर अपनी आँखों से चक्कर काट के आने का

चाँद के चाँद होने पर उनके अंधेरे हिस्से में झांकने का

दबे  ख़्वाब इतने दबे छिपे हैं कि

लिखने में भी छिपे हैं 

लिखा वो जो तुमसे कह सकती थी 

पता ही नहीं कि ख़्वाब हैं क्या मेरे? 

मेरे ही है या किसी और के? 

उस पहाड़ी पर जाना है जहां मैं सिर्फ़ अकेली दिखती हूँ ख़ुद को 

उसका हाथ थामना है जो बरसों से उस पानी के किनारे मेरे साथ खड़ा है 

उस हवा में साँस लेना है जिसमें मैं तेज़ रफ़्तार से गुज़र जाती हूँ 

बग़ैर साँस को जाने बग़ैर थामे

पानी में डूबना है 

घुटन को जान कर सांस लेना है फिर से

ये सब अभी के ख़्वाब हैं 

जब मैं तुमसे कह रही हूँ 

ये भी नहीं जानती 

ऐन ये भी नहीं जानती 

कि ये जो छिपे दबे ख़्वाब है 

ये हैं या नहीं?

मैं नहीं जानती 

इसलिए ही शायद ये मेरे ख़्वाब है 

तुम ऐसे क्यों देख रहे हो? 

तुम अपने भी जोड़ोगे क्या इसमें?

तुम्हारे दबे छिपे ख़्वाब!

क्या तुम जानते वो उन्हें

हमको घर जाना है

“हमको घर जाना है” अच्छे एहसास की कमतरी हो या दिल दुखाने की बात दुनिया से थक कर उदासी हो  मेहनत की थकान उदासी नहीं देती  या हो किसी से मायूसी...