Sunday, 13 October 2019

उसकी परछाई की चाह में
घूमे फिरे उसकी राह में
वो छूटा सा था
आज़ाद मुझसे
गली के मोड़ पर
ढलती शामों में
सूरज के जाने पर
चाँद के आने पर
उसके ग़ुम हो जाने पर
मेरे करीब आ जाने पर......
परछाई मद्धम हो
खो गयी
कभी मेरी उसकी एक हो गई
वो छूटा था
आज़ाद था
फिर कैद हो हई
दो परछाई शाम तक
अस्तित्व खो
खो गयी
या ऐसे कह दूं
कि
एक हो गयी।
किसी ने फुसफुसाया
शरीर का क्या..जो आज़ाद थी...वो
वो... रात अंधेरे में
किसे पता कहाँ सो गई।

 दुनिया में तमाम उलझने  बगावत सितम के किस्से और ज़ुल्म हैं  मेरे अपने इश्क़ और इंतज़ार की नज़्मों ने जगह रोक रखी है  हैरान हूँ अपनी दीद पर  ...