Sunday, 27 January 2019

यूँ ही...

खो गयी वो उत्सुकता
जिसमे समाज का छलावा न था
खो गयी वो मासूमियत
जिसमे दिखने दिखाने का बुलावा न था
खो गया वो बचपन
जो बंद कमरे में हमारी लड़ाई में मिलता था
अक्सर मेरी उंगली मरोडने में
और मेरे नाटक भरे दर्द में
जिसमे लोगों की बातों का झरोखा न था
खो गयी वो हसी
जो तुझे देख
छोटे बच्चे को गुबारा देख
पर्दे से झांकते हुए
आती थी
जिसमे रिवाजो का बटवारा न था
खो गया वो साथ
जिसमे समाज और तहजीब की रवायत नही थी
खो गया वो भरोसा
जो बस आंखों से आंखों में था
जिसमे किसी के मिलने और जाने की शिकायत न थी
खो न जाए वो 'देसी'
जो इन्ही से बनी हैं
जो हर वक़्त तौली जाती है अपने पैमाने पे
जो उसका है
पर वो राज़ी नही
भिड़ के  गिर के
कई दफे इत्मिनान खो के
न पा सकने वाली तसल्ली
और उसमें अपनी एक हैसियत
जो खुद को परिभाषित करने को
सौंप दे
ऐसी कवायद न थी
क्या मिला क्या खोया
ये जब पूछा कक्षा दसवी की 'गरिमा' ने
तो आज समाज के सामने खड़े
खुद को परखते समझते उलझते
ये गरिमा एक नई सीख ले रही थी
जिसमे वो एक गरिमा थी
किसी को आत्मसात कर
छोड़ देने की गफलत न थी।


माँ

  इस दुनिया में आने का   एक ही तयशुदा माध्यम  पहली किलकारी और रुदन का  एक तय एहसास  अगर भाग्यशाली हैं तो  पहला स्पर्श  पहला स्तनपान  पहला मम...