Friday, 30 September 2016
Sunday, 25 September 2016
शक्ल पे आयतें लिखी है क्या? जो हर शब देखना जरुरी सा लगता है, वो धुप से अपनी बंद होती आखो को खुले रखने की कोशिश करते हुए पूछी। एक हाथ से धुप को रोकने की कोशिश में थी।
वो बन्दूक उठाये खड़ा हो गया उसके बगल आ कर...धूप रोकते हुए बोला, कुछ मोहब्बत होती ही ऐसी है
उसमे एक सुकून मिलता है। जब उसे बिस्तर में बिखरा सिमटा सा देखो या माशूक की तड़प उस सरहद पे देखो, हर वक़्त में।
वो मुस्कुरा उठा। और वो उसकी परछाई में खुद को लपेट, नज़रे नीचे झुका उसकी परछाई को अपनी उंगलियो से छूने लगी।
आज वो आँखे सीधे सूरज जो घूर रही है इस आस में कही फिर से उसका बन्दूक वाला जवान वापस आ जाये छाँव बन के।
वो बन्दूक उठाये खड़ा हो गया उसके बगल आ कर...धूप रोकते हुए बोला, कुछ मोहब्बत होती ही ऐसी है
उसमे एक सुकून मिलता है। जब उसे बिस्तर में बिखरा सिमटा सा देखो या माशूक की तड़प उस सरहद पे देखो, हर वक़्त में।
वो मुस्कुरा उठा। और वो उसकी परछाई में खुद को लपेट, नज़रे नीचे झुका उसकी परछाई को अपनी उंगलियो से छूने लगी।
आज वो आँखे सीधे सूरज जो घूर रही है इस आस में कही फिर से उसका बन्दूक वाला जवान वापस आ जाये छाँव बन के।
Monday, 19 September 2016
उसने चुन लिया अपना रास्ता
बस जाते वक़्त कसकर हाथ पकड़ा था
जैसे जाने न देना चाहता हो
पर वो तो जाने से पहले की ज़िन्दगी थी
मैंने ही ज़िद कर ली थी मिलने की
पूछ बैठा अब मिल के क्या होगा
जवाब न दे पायी उसे तब
कि इसी पकड़ में खुद को मसलना चाहती थी
उसकी बाहों में खुद को गिरा के
उसे संभालना चाहती थी
एक बार वो हर बार वाला डर जीना चाहती थी
कि मुझे छोड़ के चला जायेगा एक दिन
आज वो दिन जीने आयी थी
खुद को उसमे एक आखिरी बार जगाने आयी थी
ये आखिरी क्या होता है
होता भी है या नहीं
इस आखिरी रात ये सौगात लेने आयी थी
तेरा तुझसे
मेरा तुझमे
एक हिस्सा चुराने आयी थी
कुछ रिश्ते दूर रहने से
बनते है
ये समझने आयी थी
खुद को क्या समझाऊँ
ये समझने आयी थी
तू आखिरी बार
मेरी आँखों में
वो सब देख ले
जो दिखाने आयी थी
एक आखिरी बार सच
तुझे करीब से देखने आयी थी
मैं कैसे रहूँ
तुम कैसे बढ़ो
आज कल जो करती हूँ
गलत हो जाता है
एक ही ज़िन्दगी में
क्या छोड़ू क्या रखू
अपने हर क्यूँ का क्या जवाब दूँ
तेरे जाने के बाद
ये समझने अब खुद के पास आयी हूँ।
बस जाते वक़्त कसकर हाथ पकड़ा था
जैसे जाने न देना चाहता हो
पर वो तो जाने से पहले की ज़िन्दगी थी
मैंने ही ज़िद कर ली थी मिलने की
पूछ बैठा अब मिल के क्या होगा
जवाब न दे पायी उसे तब
कि इसी पकड़ में खुद को मसलना चाहती थी
उसकी बाहों में खुद को गिरा के
उसे संभालना चाहती थी
एक बार वो हर बार वाला डर जीना चाहती थी
कि मुझे छोड़ के चला जायेगा एक दिन
आज वो दिन जीने आयी थी
खुद को उसमे एक आखिरी बार जगाने आयी थी
ये आखिरी क्या होता है
होता भी है या नहीं
इस आखिरी रात ये सौगात लेने आयी थी
तेरा तुझसे
मेरा तुझमे
एक हिस्सा चुराने आयी थी
कुछ रिश्ते दूर रहने से
बनते है
ये समझने आयी थी
खुद को क्या समझाऊँ
ये समझने आयी थी
तू आखिरी बार
मेरी आँखों में
वो सब देख ले
जो दिखाने आयी थी
एक आखिरी बार सच
तुझे करीब से देखने आयी थी
मैं कैसे रहूँ
तुम कैसे बढ़ो
आज कल जो करती हूँ
गलत हो जाता है
एक ही ज़िन्दगी में
क्या छोड़ू क्या रखू
अपने हर क्यूँ का क्या जवाब दूँ
तेरे जाने के बाद
ये समझने अब खुद के पास आयी हूँ।
पिंक पिंक जेल
फोटो कर्टसी:गूगल इमेजेज
ये pink तो है पर feminist नहीं है। जी हां, पिंक या गुलाबी रंग हमेशा ही लड़कियों महिलाओं से जोड़ा जाता रहा है। एक बच्ची के पैदा होते ही उसकी दुनिया में एक रंग शामिल हो जाता है उससे बिना पूछे जाने समझे, वो है पिंक। गुलाबी रंग वैसे भी बड़ा मखमली होता है। प्यारा शांत मुस्कुराता सा एकदम लड़कियों जैसा। अच्छा जब लड़कियां लिखती हूँ तो लगता है महिलाएं छूट जा रही है। महिलाएं लिखू तो लड़कियां बुरा मान जायेगी। दोनों शब्दों में फर्क भी है । उनकी स्तिथि में भी और उनके दर्द में भी और उनकी परेशानियों में भी।एक लड़की की कहानी का नाम पिंक से अच्छा क्या ही जो सकता है। पर आज ये पिंक ही जेल बन गया है। या तो ये लड़किया पिंक से बाहर जाना चाह रही या फिर ब्लू रंग का असर इनपे चढ़ रहा है कुछ तो गलत किया है इन्होंने तभी तो मुस्कुराता सा रंग जेल में तब्दील हो इनके आंसू का कारण बन गया है। पर ये फेमिनिस्ट और फेमिनिज्म के बारे में नही है मैं ये आपको यकीन के साथ कह सकती हूँ। आप जाइये और देख के आइये। मुझे उतना पता नही पर एक सिल्क की साड़ी देखी है मैंने अपनी माँ को पहने हुए और अपनी महाराष्ट्रियन दोस्त को उसमे दो रंग एक साथ दिखता है। जब साडी को एक तरफ से देखो तो एक रंग और दूसरी तरफ से या हल्का इधर उधर होने पे दूसरा रंग। उसी साडी जैसा ये पिंक भी अपनें में कई रंग पिंक ब्लू रेड ब्लैक वाइट समाये है।
इस फिल्म की प्रमोशन में भी सब किरदार निभाने वाले कलाकारों ने कहा ये फिल्म लड़कियों के ऊपर है वो भी जो दिल्ली में रहती है। पर भरोसा रखिये अगर आपको लड़कियों के फेमिनिस्ट वाले मुद्दे से थोड़ी भी परेशानी है तो मैं बता दूं ये लड़कियों पे नहीं बल्कि हम और आप पे है। बिलकुल लगेगा कि 'शब्द मेरे है बस बोल ये रहे है' अब वो निर्भर करता है कि कौन सी लाइन पे आपको ये खयाल आता है। तालियां कई बार बजी हाल में पर वो किसी के करतब पर थी या अपनी जीत पे ये जानना थोड़ा मुश्किल हो जाता है आजकल की सूडो नेचर वाली जनता में।
ऐसे मुद्दों पर कई फिल्म बन चुकी जो इन मुद्दों को उठाई और बहस छेड़ना चाही। पर वो मुह के बल गिरी क्योंकि उनमे फेमिनिस्ट भाव ज़्यादा था। एंग्री इंडियन गोडेस्सेस, माफ़ी चाहूंगी अगर नाम गलत लिख रही हूँ तो, जैसी मूवी कब आयी और कब चली गयी पता ही नही चला। सुजीत सिरकार की ये पिक्चर हिंदी सिनेमा के father figure से ही आइना दिखवा रही है। बच्चन के बोलेने पे जब पोलियो चला गया तो क्या पता यहाँ भी कुछ बात बन जाये। ये एक समन्वय मतलब सिमीट्री दिखाने का भी प्रयास है दोनों वर्गों में जो आखिरी में सहगल साहब से महिला सिपाही हाथ मिला कर डायरेक्टर साबित करते दिखे है। उसे आप कैसे भी देख सकते है पर मुझे ये पॉइंट ज़्यादा पसंद आया। वर्ना पुलिस वाली सैलूट भी कर सकती थी इज़्ज़त में। मैं किसी फिल्म का रिव्यु नही लिख रही इसलिए मुझे कहानी किरदार की बात नही छेड़नी। बस ये कहूँगी की ये फिल्म जा के देखिये। पिक्चर हॉल में इसलियेW क्योंकि तब पता चलता है कि आये कैसे थे और पिक्चर ख़तम हो के जब जा रहे तो क्या और कैसे है? ये फील हो रहा था कि काश सब ये देखे और हम नार्मल हो के चल सके। सिम्बोलिक इष्टब्लिश्मेन्ट बेहतरीन है इस पिक्चर का। बिना किसी बहस के एक बहस में 'ना' की परिभाषा समझा दी सहगल साहब ने। ये ना का मतलब क्या हम जानते है? बिना बहस इसलिए कहा क्योंकि ऐसे लगा आखिरी में कि बहुत सी बातें बतानी है कि लड़कियां ऐसी स्तिथि में गलत नही है। क्यों उनके चरित्र पे सवाल? ऐसी ऊल जलूल बातें क्यों? ये जो समाज का स्ट्रक्चर्ड आर्गनाइज्ड संघठन है जो एक तरफ़ा लड़कियों को गलत साबित करने में लग जाता है उनसे बहुत कुछ बोलना था। इस फिल्म में मुझे मेरे घर वाले यार दोस्त सब नज़र आ गए। आपको भी आएंगे । बिना कुछ बोले बस अंदर ही उन किरदारों से रूबरू हो लीजियेगा और अपना केस भी लगे हाथ इसी बहस में निपटा लिजियेगा। ये हमारे समाज को एक तमाचा है। उस सोच पर तमाचा है। जब मैं एक बार एक लड़के से दिन में पांच बार मिल ली इत्तफाकन तो उसके दोस्त ने कहा तुम लोग live in में क्यों नही रह लेते? ऐसी सोच को तमाचा है। जब कोई मुझे कहता है कि ब्लॉग लिखो पर ज़्यादा खुल के मत लिखो लोग तुम्हे जज करेंगे उनसे सवाल है औए मुझसे भी कि उनको बोलने क्यों दिया और अगर बोल भी दिया तो सुना क्यों मैंने? एक जवाब तो दो उनको।
सहगल साहब ने गर्ल्स सेफ्टी मैनुअल्स बताये है जो शहर की लड़कियों के लिए तो फिट है पर ये ग्रुप स्पेसिफिक है। गाँव की लड़की की ये परेशानी नहीं है। पर सलूशन वही है जो आखिरी में दीपक सहगल ने बताया है। ये पूरी फिल्म आपअपने हिसाब से समझ सकते है। राय रख सकते है पर इस फिल्म का आखिरी हिस्सा, जिसकी तरफ मेरे एक दोस्त ने मेरा ध्यान केंद्रित किया, वो सोचने लायक है। सूरज की रौशनी में घर की बालकनी में खुले आसमान के छोटे से हिस्से से ख़ुद को ढके दो गज़ ज़मीन पे अपना आशियाना सजाने का ख्वाब लिए ये तीन लड़किया (सिंबॉलिक) जो अपने नार्मल लाइफस्टाइल की वजह से आज अपनी इज़्ज़त एक कमरे में गवा के , सरे आम कोर्ट में जीत के अपनी नौकरी यारीदोस्ती प्यार गवा के क्या सोच रही होगी? वो आज दारू पी के नाच के पार्टी नहीं कर रही? रॉक शो में नही गयी? रो नही रही? हस नही रही? शॉपिंग नही कर रही? परेशान नही है और न ही मायूस है। फिर क्या है इस आखिरी शॉट का मतलब? और हाँ, एक बात गौरतलब है यहाँ वो पीछे नही आगे देख रही है।
मुझे मेरे एक पाठक मित्र हमेशा कहते है आप प्रेमचंद पढिये।अभी मौका तो नही लगा पर मैं हाल ही में उनकी कहानी के एक हिस्से से दो चार हुई। वो प्रेमचंद की पीड़ा सहती हुई सर्वोच्च स्थान प्राप्त अतिगुण संपन्नं नारी और सुजीत की इन questionable character वाली बोल्ड कॉंफिडेंट और स्मार्ट लड़कियों दोनों में ही फर्क कम नज़र आता है बस तब प्रेमचंद थे अब दिलीप सहगल है। तब भी सवाल थे निर्मला के अब सवाल है मीनल के। समझना तो पड़ेगा ही। पिंक का जेल बनना ज़रूरी है तभी रिहाई की गुंजाईश बनती है उनकी भी और हमारी भी।
Monday, 12 September 2016
बेनाम से ख्याल
इनकी आँखों के तले मश्वरा न हुआ होता
रात अँधेरी न होती तो काला क्या होता
जो नारंगी गोल गोल था दिन में ऊपर
वो सूरज न होता
तो क्या चाँद दिन का सितारा होता
गैरो की महफ़िल में सजाते रहे रंग
श्रृंगार के इतने प्रकार न होते
तो हँसने हँसाने का गुज़ारा क्या होता
किसी हाफ़िज़ से तालीम लेकर आये है
वर्ना कारीनों पे पाजेबो के जुमरूओं का इशारा क्या होता
मोहब्बत आशिक़ी गर होती
इबादत मोहब्बत गर होती
इश्क़ का मजहब औ क़ुरान के पन्नो का नज़ारा क्या होता
रात अँधेरी न होती तो काला क्या होता
जो नारंगी गोल गोल था दिन में ऊपर
वो सूरज न होता
तो क्या चाँद दिन का सितारा होता
गैरो की महफ़िल में सजाते रहे रंग
श्रृंगार के इतने प्रकार न होते
तो हँसने हँसाने का गुज़ारा क्या होता
किसी हाफ़िज़ से तालीम लेकर आये है
वर्ना कारीनों पे पाजेबो के जुमरूओं का इशारा क्या होता
मोहब्बत आशिक़ी गर होती
इबादत मोहब्बत गर होती
इश्क़ का मजहब औ क़ुरान के पन्नो का नज़ारा क्या होता
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